दीपक की बातें

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Sunday, September 25, 2011

आधी रात, गंगा और गुलाम अली

12 बजने में अभी 10 मिनट बाकी हैं। इसके बावजूद आनंदेश्‍वर की गलियों में चहल-पहल थी। इसकी सबसे बड़ी वजह सोमवार का दिन। बाबा के भक्‍तजनों का तांता लगा हुआ है। श्रद्धा का सैलाब उमड़ा है। कुछ भक्‍त बड़ी गाडि़यों में आए हैं, शायद गाड़ी का आकार थोड़ा और बड़ा करने की आरजू होगी मन में। कुछ पैदल आए हैं। घर से चले थे कुछ और कामनाएं थीं। बाबा के दरबार में कुछ बिगड़ी संवारने की गुहार लगाने आए थे। गाड़ी वालों को देखकर प्रार्थनाओं में एक और प्रार्थना का इजाफा हो गया। भगवान एक गाड़ी भी दिला दे।

उधर मंदिर की गली में भिखारियों का रेला लगा है। श्रद्धालुओं से एक-दो रुपए पा जाने की आस में उनके लिए दुआओं की झोली खाली कर डाल रहे हैं। हैरानी होती है कि ये भी किससे मांग रहे हैं? उससे, जो खुद भगवान से मांगने आया है। दुनिया की रीत है। एक भिखारिन अपनी दिन भर की जमा-पूंजी समेट रही है। गठरी बनाकर उसे सिरहाने बड़े जतन से रखती और उसी पर सिर रखकर सो जाती है। मेरे मन में सवाल उठता है, भगवान के दरबार में भी इतना डर। मगर वह शायद प्रैक्टिकल है। भगवान उसके लिए एक साधन मात्र हैं। उसे बस इतना पता है कि अगर भगवान नहीं होंगे तो भक्‍त यहां नहीं आएंगे और जब भक्‍त नहीं आएंगे तो उसका पेट भरना मुश्किल हो जाएगा।

इस सारे नजारे के बीच मैं अपने दो वरिष्‍ठ साथियों मयंक जी और पुनीत जी के साथ गंगा के घाट की तरफ चला जा रहा हूं। यह प्रोग्राम भी कोई तयशुदा नहीं था। खाना खाते-खाते अचानक बन गया था। घाट की तरफ मिलने से पहले मयंक जी का प्रस्‍ताव आता है, ठंडाई पियोगे। अचानक दो साल पहले का वाकया याद आ जाता है। तब मैं यहां नया था। एक रात ऐसे ही कुछ वरिष्‍ठों के साथ ठंडाई पीने का प्रोग्राम बना था। कुछ लोगों ने भांग वाली ठंडाई पी। मुझसे तो बताया गया कि तुम्‍हारी ठंडाई में भांग नहीं है, पर पता नहीं क्‍यों मुझे यकीन नहीं हुआ। रूम पर लौटा तो रात के 3 बजे तक हंसता ही रहा था।

खैर, इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। ठंडाई पीने के बाद हम गंगा जी के घाट पर पहुंच गए। बरसात के पानी से उफनाई गंगा जी। आधी रात का वक्‍त। लहरें खामोश, मगर फिर भी उपस्थिति का आभास कराती हुईं। थोड़ा सा कोलाहल करते हुए। पार्श्‍व में भी कोलाहल तेज है। फिल्‍मी धुनों पर तैयार किए गए भक्ति गीत बज रहे हैं। घाटों के ठीक पीछे बने टीनशेड में कुछ साधु आराम करते हुए। कुछ मुसाफिर भी हैं शायद।

तभी मेरी मोबाइल में गाना बजता है, 'चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है'। गुलाम अली की मदभरी आवाज इस माहौल में एक अलग ही समां बांधने लगी। गुलाम अली के सुर बुलंद हो रहे हैं, गीत रफ़्तार पकड़ रहा है,
'चोरी-चोरी हमसे आकर, तुम मिले थे, जिस जगह, मुद्दतें गुजरीं पर अब तक वो ठिकाना याद है।'
मानों पीछे से आ रहे भक्ति गीतों का शोर, सामने गंगा की लहरों का कोलाहल और गुलाम अली के सुर जुगलबंदी करने लगे हों। एक अलग तरह का फ्यूजन। हम तीनों में से कोई बोल नहीं रहा है। बस सभी उस माहौल को जितना भी हो सके जी लेना चाहते हैं। मगर शायद पुनीत जी इस माहौल को यहीं छोड़ देने के मूड में नहीं। वह अपने मोबाइल से इस नजारे को कैद करने में लगे हैं।

करीब आधे घंटे का वक्‍त बीत चुका है। मन उठने को तैयार नहीं हो रहा। थोड़ी देर इस पल को और जी लेने को जी चाह रहा है, मगर सुबह ऑफिस जाना है। काम करना है। टेंशन-टेंशन। अचानक से रूहानी पल की खूबसूरती छू होने लगती है। हम उठकर चल पड़़ते हैं। गली में भी अब शोर थमने लगा है।

Friday, September 16, 2011

'दीवार' से मेरा प्‍यार


शुक्रवार को राहुल द्रविड़ ने वनडे क्रिकेट को अलविदा कह दिया। हालांकि वनडे से द्रविड़ को पहले ही दूर कर दिया गया था, फिर भी उन्हें आखिरी बार बैटिंग करते हुए देखना खासा भावुक करने वाला पल था। खासकर मेरे जैसे डाईहार्ड फैन के लिए। फिर भी मैं मानता हूं कि द्रविड़ इस मायने में लकी हैं कि उन्हें कम से कम फेयरवेल मैच खेलने का मौका तो मिला। हालांकि इसका एक पहलू और भी है कि इस वक् भारत को वाकई उनकी जरूरत थी क्योंकि इस इंग्लैंड दौरे पर वही एकमात्र बल्लेबाज थे जो सफल हो पाए थे। द्रविड़ ने इस मौके का पूरा फायदा उठाया और ऐलान कर दिया कि यह सिरीज उनकी आखिरी वनडे सिरीज होगी।

मुझे आज भी 1996 का वह दिन याद है। मेरे ऊपर क्रिकेट का खुमार चढ़ना शुरू हो चुका था। अपने से बड़ी उम्र के गांव के लड़कों के साथ जो कि क्रिकेट के दीवाने थे, मैं क्रिकेट की चर्चा किया करता था। इस बात के लिए मुझे कई बार तारीफ, मगर उससे ज्यादा बार आलोचना झेलनी पड़ती। दरअसल गलती आलोचना करने वालों की भी नहीं थी। कक्षा छह में पढ़ने वाले से लोगों से बहस लड़ाने के बजाए, पढ़ाई में ध्यान देने की उम्मीद की जाती है। खैर, यह बातें फिर कभी। फिलहाल सारी बातें सिर्फ और सिर्फ मेरे हीरो द्रविड़ के बारे में।

3 अप्रैल 1996 के दिन भारत का श्रीलंका से मैच था। घर पर मैच देखने की सुविधा नहीं थी, और रेडियो पर चाचा जी कमेंटरी सुन रहे थे। उनके साथ कमेंटरी सुनने का दूर-दूर तक कोई चांस नहीं था। आखिरकार मैंने एक तरीका निकाला और किसी तरह घर से छुपकर निकला और अपने पड़ोसी के घर पहुंच गया। वहां पर मेरे पड़ोसी जो कि रिश्ते में चाचा थे, कमेंटरी सुन रहे थे। मैं भी उनके साथ बैठ गया। सचिन और अजहर का विकेट गिरने पर चौथे नंबर बैटिंग करने के लिए एक नया लड़का राहुल द्रविड़ आया। कमेंटेटर्स के मुंह से राहुल के लिए हमने काफी तारीफ सुनी। यहीं से इस नाम के प्रति मुझे एक अजीब तरह का लगाव पैदा हुआ। इसकी कई वजहें थीं। दरअसल इतिहास की किताब में मैंने द्रविण सभ्यता के बारे में सुना था। राहुल द्रविड़ का नाम सुनकर सोचा कहीं यह द्रविण सभ्यता से तो नहीं आया है। बहरहाल यह तो बचपन की समझ का कुसूर था। खैर वह दिन द्रविड़ का नहीं था और सिर्फ 3 रन बनाकर आउट हो गए। हालांकि बाद में उन्होंने फील्डिंग करते हुए दो कैच पकड़े और इंडियन टीम ने वह मैच भी जीता था।

अगले दिन अखबारों में राहुल द्रविड़ की फोटो ढूंढ रहा था, पर उन्होंने उस मैच में ऐसा कुछ खास किया नहीं था कि उनकी फोटो छपती। बाद में जब घर पर टीवी आई तो फिर राहुल द्रविड़ की बैटिंग देखने को मिली। फिर तो मैं उनका मुरीद होता चला गया। द्रविड़ की स्टाइल को लेकर अक्सर मेरी दोस्तों से लड़ाईयां भी हुई हैं। उन्हें ठुकठुक बल्लेबाज बताकर उनकी खिंचाई करते और मुझसे यह बर्दाश् नहीं होता। खैर, आने वाले वक् में द्रविड़ ने साबित किया कि वह तेजी से रन भी बना सकते हैं। आज भारत की तरफ से दूसरा सबसे तेज पचासा लगाने वाले द्रविड़ ही हैं।

वनडे में द्रविड़ की जगह लेने के लिए कई चेहरे हैं। विराट कोहली से लेकर, रोहित शर्मा, अजिंक्या रहाणे, एस बद्रीनाथ समेत कई नाम हैं। मगर असली समस्या तब शुरू होगी जब द्रविड़ टेस् से संन्यास लेंगे। वहां पर उनकी जगह लेने वाले खिलाड़ी को वाकई बड़े टेस् देने होंगे। बहरहाल जो खिलाड़ी हैं उनमें मैं चेतेश्वर पुजारा और विराट कोहली को उनकी जगह लेने के लिए आदर्श मानता हूं। मेरा मानना है कि इन दोनों में इतनी पोटेंशियल है कि वे द्रविड़ की जगह भर सकते हैं।

Saturday, September 10, 2011

फेसबुक पर लिख्‍ात-पढ़त

तुम्‍हारे आगोश में एक सदी का वक्‍त, जैसे एक लम्‍हें में गुजरा
शाम कतरा-कतरा ढलती रही, जिंदगी हमारे दरमियां सिमटती रही
 
तुम्‍हारी निगाहें हमें बुला रही थीं,
अदाएं तो बस कयामत ढा रही थीं
हर हुकूमत से लड़ जाएंगे,
इश्‍क किया तो ये हुनर सीखा है

तुम्‍हारा वजूद, मेरे जज्‍बात सलामत रहें,
तुम्‍हें नजर ना लगे, हमारा प्‍यार सलामत रहे
दो लफ्ज काफी नहीं हमारी मोहब्‍बत बयां करने के लिए
तुम चाहे कुछ भी कर जाओ, मैं तुम्‍हें यूं ही चाहता रहूंगा
(भारत की लगातार हार के बावजूद क्रिकेट का मोह नहीं छोड़ पाने पर)
नज़र से गुफ्तगू की कभी ज़बां नहीं खोली,
इज़हारे-ए-इश्‍क की ये अदा भी खूब रही।
कयासबाजियों में ही बीता वो दौर मोहब्‍बत का,
हम सही समझे तो भी ग़लत और ग़लत समझे तो भी ग़लत।
अरे फेसबुकिए मित्र, तुम बड़े अजनबी से लगते हो
कोई स्‍टेटस लाइक नहीं करते, कभी कमेंट नहीं करते
मोहब्‍बत की, प्‍यार की बातें
बेकार हैं इश्‍क के इजहार की बातें
जब मैं तुम्‍हारे ख्‍वाबों ख्‍यालों से दूर चला जाऊंगा
याद करना चाहोगी मुझे, पर मैं याद भी ना आऊंगा
अजीब पशोपेश से गुजर रहा हूं इन दिनों,
ना तुम्‍हारी याद आती है, ना तुम्‍हारा ख्‍याल जाता है
(इंग्‍लैंड में भारतीय टीम के खराब प्रदर्शन पर )
जिनके लिए मैंने रात की नींद कुर्बान कर दी
कम्‍बख्‍त मुझे दो पल की खुशी भी ना दे सके
(टी-20 में टीम इंडिया की हार पर )
वो मुस्कुराएँ तो दिल को कुछ सुकून मिले
पर वो जाने किस जन्म का बैर ठाने बैठे हैं.
कई दिनों से वो मेरी तरफ नहीं आये
कई दिनों से हम उनकी गली से नहीं गुज़रे
कई दिनों से निगाहों ने देखा नहीं उनको
खुदा खैर करे, उन्हें किसी की नज़र ना लगे.
सुना था तुम्हारे शहर में बेदर्द रहते हैं
आज हमको भी इस बात का अंदाज़ा हो गया.
जुदा होकर भी उसका अहसास दिल में अभी बाकी है,
उसके वजूद को हम ख्यालात में भी महसूस करते हैं.
फिर किसी मोड़ पर मुलाकात हो जाने की आस में,
हम उनकी मोहब्बत का दिया दिल में जलाये फिरते हैं.
ना साथी ना सहारा है,
ज़िन्दगी तनहा बंजारा है
निगाहें ढूँढती हैं चेहरा कोई पहचाना,
मगर इस भीड़ में हर शख्स अनजाना है.