दीपक की बातें

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Saturday, October 8, 2011

आधी रात को ख्‍यालों की आवारगी

आधी रात से भी ज्‍यादा का वक्‍त हो चुका है। गौरव सोलंकी के ब्‍लॉग 'रोटी कपड़ा और सिनेमा' पर लिखे दिलचस्‍प किस्‍से पढ़ते-पढ़ते वक्‍त सरकता जा रहा है। अचानक लगता है अब सोना चाहिए। फिर अलार्म लगाने के लिए मोबाइल उठाता हूं तो मन करता है चलो एक गाना सुन लिया जाए। पुनीत भाई सो रहे हैं। रूम-पार्टनर धर्म भी निभाना है। फिर ईयरफोन ढूंढता हूं। लाइट नहीं जलाता। अपने कमरे में बिना लाइट जलाए कुछ भी ढूंढ लेने का 'ओवरकांफिडेंस' है।

बहरहाल, कान में ईयरफोन ठूंसकर म्‍यूजिक प्‍लेयर पर जाने तक तय नहीं है कि गाना कौन सा सुना जाएगा। दिल कहता है, चलो जो ही सुना दो। प्‍ले करते ही आतिफ असलम की आवाज कान में गूंजती है। 'कुछ इस तरह........तेरी पलकें, मेरी पलकों से मिला दे।' सुर घटते-बढ़ते रहते हैं। नशा तारी होता जाता है। गाना खत्‍म होता है। दिल से वन्‍स मोर का शोर। चलो फिर हो जाए, दिमाग किसी आवारा साथी की तरह दिल का साथ देता है।

अजीब बात है ना। हम दिल की तुलना में दिमाग को ज्‍यादा अक्‍लमंद मानते-समझते हैं। मगर दिमाग की शैतानियां तो दिल की कारगुजारियों से बड़ी हैं यार। दिल तो बेचारा मासूम, जो समझ में आया कर लिया, किसी बच्‍चे के माफिक। मगर दिमाग, वह तो पूरा शाणा। मंझा हुआ अपराधी। दिल-दिमाग की मिलीभगत से मेरा संगीतमय अपराध चलता रहता है। फिर ख्‍याल आता है, गुलाम अली को सुन लूं थोड़ा। ख्‍यालात की लड़ी बनती जा रही है। ख्‍याल एक दूसरे से टकरा रहे हैं।

सारंगी और तबले की जुगलबंदी के बीच गुलाम अली की आवाज कानों में मिसरी की तरह घुलती है। 'चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है......' जाने कितनी बार सुन चुका हूं ये गजल। मगर हर बार एक नई तरावट मिलती है। किसी चीज का नशा हो जाना शायद इसी को कहते हैं। बार-बार वही करने को जी चाहता है। आज भी याद है पहली दफा यह गजल यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दिनों में जौव्‍वार हुसैन सर के मुंह से सुनी थी। जयपुर टूर पर जाते वक्‍त, पूरे जौनपुरिया मिजाज और ठसक के साथ उन्‍होंने यह गजल सुनाई तो फिर मैं इसका मुरीद होता चला गया। बरसों बीत चुके हैं मगर इसके लिए दीवानापन अभी भी कायम है।

गुलाम अली साहब की लत कब लगी यह तो याद नहीं, मगर गजल के साथ फनकार का अंदाज भी भाता गया। शायद यह उम्र के उस दौर का भी कुसूर था कि आवाज के बादशाह से ज्‍यादा गजल के लफ़्जों ने ज्‍यादा लुभाया।

मेरे कानों में ठुंसे ईयरफोन के जरिए गुलाम अली साहब की खुरदरी, मगर बला की मुलायमियत और कशिश से भरी आवाज मेरे जेहन में ग्ंज रही है। वो गा रहे हैं 'तुझसे मिलते ही वो कुछ बेबाक हो जाना मेरा........' इधर मेरे जेहन में एक और ख्‍याल उमड़ने लगा है। कुछ लिखने के लिए मन बेचैन हो रहा है। मन के एक कोने से आलस का आमंत्रण आता है, अमां सोओ यार, कहां रात में आंखें फोड़ोगे। गिरीन्‍द्र भाई से किया वादा, कि अब इस ब्‍लॉग पर सिर्फ क्रिकेट के बारे में ही लिखूंगा भी टूटने का डर नहीं सताता। लिखने का कीड़ा ज्‍यादा ताकतवर है। मैं बिस्‍तर पर से उठ रहा हूं। लैपटॉप टिकाने के लिए मेज को खोल रहा हूं। लाइट नहीं जलानी है, पुनीत भाई जागने ना पाएं इसका भी ख्‍याल रखना है। एक बार फिर रूम-पार्टनर धर्म की दुविधा में फंसा हूं।

लैपटॉप पर लाल-नीली बत्तियां जलने लगी हैं। इंटरनेट कनेक्‍ट कर रहा हूं और कानों में गुलाम अली गुनगुना रहे हैं, 'दोपहर की धूप में, मेरे बुलाने के लिए, वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है।'

सुबह के तीन बजने जा रहे हैं, ख्‍यालों की आवारगी मुसलसल जारी है।

6 comments:

  1. आप बेपरवाह होकर लिखिए तो जो उभरकर सामने आता है वही सच है। आपका यह पोस्ट इसी सोच पर आधारित है। लगता है हाथ वाले पंखे को झेल रहा हूं,धीमे-धीमे हवा आ रही हो और मन कह रहा हो, पंखा झेलना मत रोको। दरअसल लिखने का आनंद यही है। यदि आप शास्त्रीय संगीत में रुचि रखते हैं तो खयाल गायिकी सुनें अथवा कोई भी आलाप। वह ऐसे ही अपनी छटा बिखेरती है। आशा है आप भी अपनी छटा (लेखऩ)बरकरार रखेंगे। और हां, एक पाठक के तौर पर मुझे आपकी इस पोस्ट में एक जगह दिमाग पर बहुत जोर देना पड़ा और वह शब्द है- 'धर्म की दुविधा'। इस पर फिर कभी ..चलिए आपके साथ मैं भी आलाप करता हूं- 'तुझसे मिलते ही वो कुछ बेबाक हो जाना मेरा........'

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  2. बेहतरीन-लिखते रहो,अच्छा लगा,बधाई.

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  3. गिरीन्‍द्र भाई, हौसलाआफजाई के लिए शु्क्रिया।
    मनोज सर, आर्शीवाद बनाए रखिए सर, लेखनी खुद-ब-खुद चलती रहेगी।

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  4. , 'दोपहर की धूप में,
    मेरे बुलाने के लिए,
    वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है।'
    ..bahut badiya gajal kee line suna dee aapne...
    bahut badiya likhten hain...bus yun hi likhte rahiye... patrakarita ke liye to likhna shayad bahut jaruri hai...
    haardik shubhkamnayen...

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  5. कविता जी शुक्रिया। आप लोगों के कमेंट्स ही मेरा हौसला बढ़ाते हैं। कोशिश पूरी रहेगी कि लेखनी थमने ना पाए।

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  6. दीपक ...जी ..जलते रहना और रौशनी देना ये दोनों ही जिम्मेदारियां आपका नाम ,और आपका काम दोनों ही बखूबी निभाना जानते हैं ...इस लेख ने दोनों ही मकाम हासिल किये है ...
    बहुत ही शार्प और क्रिस्प है .आपकी शैली ,रोचक भी और ...मोहक भी ....बाँध लिया ...एकदम ...
    may god bless u

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