दीपक की बातें

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Saturday, December 15, 2012

हम दोनों आधा—आधा

हम दोनों एक दूसरे के
हैं आधा—आधा
तन्हाइयां तक्सीम, दर्द भी आधा—आधा
जिस्म के हिस्से तमाम, बांटे हुए आधा—आधा
नींद आधी—आधी हमारी आंखों में
रात ढलने का इंतजार आधा—आधा
प्यार के लम्हे आधा—आधा
रुसवाइयों का हिसाब आधा—आधा
जो डायरी पर लिख रहे थे कविता तुम
हर्फ उसका भी रह गया है आधा—आधा
मेरी आंखों में पलते ख्वाब तेरे
टूट जाते हैं अक्सर आधा—आधा
मुदृतों की चादर में ​बिखरी ये मोहब्बत अपनी
कभी लम्हों में सिमट कर आएगी
या रह जाएगी आधा—आधा!

Friday, November 30, 2012

'तलाश' नहीं करेगी निराश

हमने 'तलाश' कर ली। आप भी 'तलाश' कर लीजिए। दावा है कि निराश नहीं होंगे। आमिर ने फिर साबित किया कि वह क्यों मिस्टर परफेक्शनिस्ट हैं। अच्छी कहानी, अच्छी एक्टिंग, अच्छी सिनेमैटोग्राफी। ट्विस्ट्स और टर्न से भरपूर इस कहानी का एंड आपको हिलाकर रख देने की क्षमता रखता है। हां, बस बीच में फिल्म थोड़ी सी बोझिल जरूर हो जाती है। अगर रीमा कागती इसकी शुरुआती रफ़्तार कायम रखने में सफल होतीं तो यह और भी शानदार फिल्म होती। बहरहाल रीमा कागती का डायरेक्ट्रियल डेब्यू बढ़िया है। आमिर तो हैं ही बेमिसाल, बाकी रानी मुखर्जी, करीना कपूर, राजकुमार यादव भी अपने रोल में फिट हैं। हालांकि महफिल लूटी है, नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने। उन्होंने फिर साबित कर दिया है कि रोल की गहराई में डूबकर कैसे काम किया जाता है।
(मेरी तरफ से फिल्म को 4 स्टार)

Saturday, November 17, 2012

छल भरे सपने

कुछ छल भरे सपने
मेरी पलकों में आ जाते हैं
जिंदगी जीने की सच्‍ची-झूठी उम्‍मीद दे जाते हैं
मैं कई बार हैरान होता हूं
अपनी महत्‍वाकांक्षाओं पर
सफर के साथी जब छूटते नजर आते हैं
मुश्किलें, तन्‍हाइयां, बेचारगी, मजबूरियां
जिंदगी के इम्तिहान से मिले सबक जैसे याद आते हैं

Tuesday, November 6, 2012

मच्छर और आतंकी

कल रात मेरे हाथों एक मच्छर का कत्ल हो गया
हुआ यूं कि अखबार में था मेरा ध्यान
मच्छर आकर कान में देने लगा ज्ञान
मैंने अखबार लहराया,मच्छर उसकी चपेट में आया
और अखबार पर रक्त की बूंदें मेरे गुनाह का सुबूत थीं।
मुझे अफसोस हुआ! अचानक मुझे वो मच्छर याद आने लगा
जिसने काटा था आतंकी कसाब को
सोचा, कौन जाने ये वही मच्छर रहा हो
कसाब को काटने के बाद बहादुरी में इतरा रहा हो
जो देश की सरकार ना कर सकी
उसे अपनी वीरगाथा बता रहा हो।
फिर तो मच्छर के प्रति सहानुभूति उमड़ आई
मैंने अखबार पर नजर दौड़ाई
वहां खून की बूंदे देख तसल्ली हुई
वाह, देखो क्या मौत मरा है जवान
जाते—जाते अखबार पर छोड़ गया निशान।

Monday, November 5, 2012

तुम भी जलते रहो

तुम भी जलते रहो
मैं भी जलता रहूं,
सुबह-शाम बस यूं ही चलता रहूं
कुछ अदाएं तेरी
कुछ खताएं मेरी
तुमको देखा करूं, और मचलता रहूं
फासला कुछ रहे
फैसला कुछ रहे
सोचता कुछ रहूं, कुछ निखरता रहूं

Tuesday, October 30, 2012

अन्ना बने गेंदबाज

अन्ना हजारे ने कहा कि उन्होंने सरकार के छ: विकेट लिए हैं। यह खुलासा होते ही पूरे भारत के क्रिकेटप्रेमियों में हलचल मच गई है। हर तरफ से अन्ना हजारे को टीम इंडिया में शामिल किए जाने की मांग होने लगी है। अब भारतीय गेंदबाजों के वर्तमान फॉर्म के बारे में तो आप सब जानते ही हैं। एक भी गेंदबाज दो विकेट से ज्यादा नहीं ले पा रहा है। हरभजन सिंह बाहर हैं और जहीर खान से लेकर आर आश्विन समेत तमाम गेंदबाज फॉर्म से बाहर हैं। इस बीच अंग्रेज एक बार फिर लगान वसूलने के लिए भारत की धरती पर पधार चुके हैं। ऐसे में अन्ना हजारे भारत के लिए गेंदबाजी में एक बेहतरीन विकल्प हो सकते हैं।

अब जरा कल्पना कीजिए कि अन्ना हजारे को टीम इंडिया में बतौर गेंदबाज शामिल कर लिया जाता है। मैच में धोनी विकेट बल्लेबाजी लायक होने के बावजूद टॉस जीतकर पहले गेंदबाजी का फैसला करते हैं। अंग्रेज कप्तान हैरान है, रविशास्त्री भी हैरान हैं। वह कहते हैं कि धोनी ऐसा क्यों? धोनी पूरे आत्मविश्वास के साथ जवाब देते हैं? मेरे पास अन्ना हैं !

उधर अंग्रेजों की टीम परेशान है। अब ये अन्ना कौन आ गया। इसका तो कोई गेंदबाजी वीडियो भी नहीं कि जिसे देखकर थोड़ी प्रैक्टिस कर लें! चलो अब बैटिंग तो करनी ही है। अंग्रेज ओपनर बल्लेबाज मैदान पर उतर रहे हैं। भारतीय टीम भी मैदान पर फिल्डिंग करने उतर रही है। अन्ना के हाथ में नई गेंद है।

आते ही अन्ना पहले सभी फील्डरों को बुलाते हैं। सब गोल घेरे में खड़े हो जाते हैं। थोड़ी देर के बाद सभी पिच पर गोल घेरा बनाकर बैठ जाते हैं। कमेंटेटर हैरान! दोनों अंपायर हैरान! अंग्रेज बल्लेबाज हैरान! अन्ना जेब से टोपी निकालकर पहन लेते हैं। टोपी पर लिखा है मैं गेंदबाज हूं। टीम इंडिया के बाकी खिलाड़ी भी अपनी जेब से टोपी निकालकर पहन लेते हैं। किसी की टोपी पर लिखा है— मैं पेप्सी हूं। किसी की टोपी पर लिखा है— मैं रीबॉक हूं। धोनी और सचिन डिसाइड नहीं कर पा रहे हैं कि कौन सी टोपी पहनें। दरअसल दोनों ने इतने ज्यादा विज्ञापन करार साइन कर रखे हैं कि समझ में नहीं आ रहा है कि किसे दिखाएं किसे ना दिखाएं। डर है कोई कंपनी नाराज न हो जाए।

उधर बीसीसीआई वाले भी परेशान हैं। न्यूज़ चैनल इसे लाइव दिखा रहे हैं। इस बीच टीम इंडिया का कोई सदस्य अन्ना से पूछता है कि हम इस तरह क्यूं बैठे हैं? ऐसे विकेट कैसे मिलेगा? अन्ना तब अंदर की बात बताते हैं। वह कहते हैं कि वैसे भी तुम लोग दौड़—भाग कर नहीं पाते। एक रन की जगह तीन रन दे देते हो। कैच पकड़ नहीं पाते हो। इसलिए हम लोग आमरण अनशन कर रहे हैं। मुझे छह—सात दिन तक अनशन करने का अनुभव है। देखना एक—दो नहीं पूरे सोलहों विकेट गिरेंगे। टीम इंडिया का नया सदस्य संशय में है। और कहीं हम लोग गिर पड़े तो?

Friday, October 26, 2012

मेरे साथ चलो

 
घनी उदास और स्‍याह शाम के बीच,
गहराते अंधेरे में, जब रोशनी डूब रही हो कण-कण
जिंदगी मुझे मेरे मुकद्दर की तरफ खींच रही हो
और मैं अपना मुकाम बनाने की जिद पर आमादा।
वक्‍त की सलवटों को फिर करीने से सजा देने की धुन लिए
दिल में जिंदा रखे चमत्‍कारों की एक आशा
गुजर जाऊं रास्‍ते पर जमे उन पत्‍थरों से
जिनपर ठोकरें खाकर गिरता रहा अब तक।
मेरे लिए मांगी गई तमाम दुआओं
आओ तुम सब भी मेरे साथ चलो।

Wednesday, October 10, 2012

सिंगल स्क्रीन की 'उम्मीदें'


मुझे फिल्में देखने का जबर्दस्त चस्का है। इतना कि जब तक हफ्ते में तीन-चार फिल्में ना देख लूं चैन नहीं पड़ता। अब इतनी फिल्में देखनी हैं तो मल्टीफ्लेक्स तो अफोर्ड नहीं कर पाउंगा। एेसे में मेरा ठिकाना बनते हैं सिंगल स्क्रीन थिएटर्स। कानपुर में रहने के दिनों की जितनी यादें हीर पैलेस, सपना और गुरुदेव पैलेस से जुड़ी हैं, उतनी रेव थ्री, रेव मोती या आइनॉक्स की नहीं हैं। एेसे में सिंगल स्क्रीन थिएटरों को लेकर मेरा भावुक होना लाजिमी है।

आमतौर पर सिंगल स्क्रीन थिएटर्स में किस स्तर की फिल्में लगती हैं ये सबको पता है। देशभर में सिंगल स्क्रीन थिएटर्स का हाल किसी से छुपा नहीं है। अपने शहर इंदौर में भी सिंगल स्क्रीन थिएटर्स किस हालत में हैं सबको पता है। एेसे में हाल में रिलीज हुई कुछ फिल्में इन सिंगल स्क्रीन थिएटर्स के लिए एक हसीन फुहार की तरह साबित हो रही हैं। हाल ही में रीगल सिनेमाहॉल में फिल्म इंग्लिश-विंग्लिश देखने पहुंचा। रीगल को लेकर मेरा अब तक का अनुभव यही रहा है कि यहां युवाओं के पसंद की बोल्ड फिल्में लगती हैं। पूरे हफ्ते फिल्म के शोज फुल रहते हैं और काफी हद तक कमाई हो जाती है।

इस बार सिनेमा हॉल के बाहर इंग्लिश-विंग्लिश का पोस्टर देखकर थोड़ी हैरानी हुई। टिकट खिड़की पर लंबी लाइन लगी हुई थी। इसमें सिर्फ युवा या छात्र ही शामिल नहीं थे बल्कि फैमिली के लोग भी बड़ी तादाद में आए हुए थे। के नहीं, फैमिली क्लास के लोग भी आए हुए थे। मेरे लिए यह हैरान करने वाला सुखद अनुभव था।कुछ दिन पहले एेसा ही अनुभव आस्था सिनेमाहॉल में फिल्म ओह माय गॉड को देखते हुए हुआ था। यहां भी बड़ी तादाद में भीड़ उमड़ी हुई थी। तमाम परिवार वाले यहां मौजूद थे। निश्चित तौर पर सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल के मालिकों को उनके इस हिम्मतभरे कदम के लिए शाबाशी देनी चाहिए।

ओह माय गॉड और इंग्लिश-विंग्लिश को मल्टीप्लेक्स नेचर की फिल्में कहा जा सकता है। सिंगल स्क्रीन पर इसे लगाना जोखिम का काम है। पहले ही अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रहे सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के मालिक एेसी फिल्में कम ही लगाते हैं। उन्हें डर होता है कि फैमिली वाले तो सिंगल स्क्रीन में आएंगे नहीं। एेसे में कहीं घाटा हो गया तो उबरना बेहद मुश्किल हो जाएगा। यही वजह है कि अब तो बहुत से सिंगल स्क्रीन्स में बी या सी ग्रेड की फिल्में ही लगने लगी हैं। इसके पीछे मालिकों की मंशा किसी तरह फिल्म की लागत भर निकाल लेने की होती है। मगर जिस तरह से ओह माय गॉड और इंग्लिश-विंग्लिश को दर्शकों ने रिस्पांस दिया है, इससे निश्चित तौर पर सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के मालिकों को एक आस बंधी होगी।

अगर सिंगल स्क्रीन थिएटर्स में फैमिली लायक माहौल, अच्छी फिल्में और थोड़ा स्तरीय सुविधाएं मिलें तो दर्शकों को वापस मोड़ा जा सकता है। हां, लेकिन इसके लिए सिंगल स्क्रीन मालिकों को हिम्मत दिखानी होगी।

Tuesday, October 2, 2012

तुम, मैं, चाँद और मोहब्बत

मैं कल रात बहुत देर तक
छत पर खड़ा घूरता रहा चाँद को
ढूँढता रहा तुम्हारा चेहरा चाँद के चेहरे में
करीब आधे घंटे तक की मैंने कोशिश
मगर तुम नहीं नज़र आई चाँद में
मैंने मन ही मन उलाहने भेजे उन कवियों को
जो जाने क्या कल्पनाएँ कर गए हैं चाँद को लेकर
मैं छत से उतर आया और दिल में तलाशने लगा तुम्हें
मगर इस मांस के छोटे से लोथड़े ने
वहां तुम्हारा वजूद होने से इंकार कर दिया
मैं हैरत में था
क्या मैं तुमसे थोड़ा भी प्यार नहीं करता
क्या तुम मुझसे थोड़ा भी प्यार नहीं करती
फिर क्यूँ तुम मुझे नहीं दिखी, चाँद में और दिल में
अचानक मेरे कानों में तुम्हारी आवाज़ आई
अरे मैं किचन में हूँ, छोटे को पकड़ो


Sunday, September 30, 2012

कमाल कर दिया कांजी भाई

Poster of OMG Oh My God!

ईश्वर के नाम पर ढोंग, धर्म के नाम पर पाखंड. हम सब देखते हैं. हम सब जानते हैं, लेकिन कभी आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं होती. चलिए फिल्म OMG Oh My God ये काम बखूबी करती है. अगर ईश्वर सृष्टि के कण-कण में मौजूद है तो किसी मंदिर, दरगाह या अन्य धार्मिक स्थल पर जाने की क्या ज़रूरत है? क्या इन्सान मात्र की सेवा प्रभु की सेवा नहीं है? धर्म के ठेकेदारों को क्यूँ बढ़ावा दें? कुछ ऐसे ही सवालों का कांजीभाई यानि परेश रावल दिलचस्प किन्तु ठोस अंदाज़ में जवाब देते हैं. धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ वह धर्मशास्त्रों को ही हथियार बनाते हैं. बेहद शानदार फिल्म. शुरू से अंत तक बंधी हुई. परेश रावल और मिथुन चक्रवर्ती ने शानदार अभिनय किया है. खासकर मिथुन का इस फिल्म में जवाब नहीं. उनपर अलग से लिखूंगा कभी. बाकी कलाकारों में अक्षय और अन्य औसत साबित हुए हैं. म्यूजिक और गीत भी अच्छे हैं. मस्ट वाच. 

Saturday, September 22, 2012

ज़िन्दगी

लम्हों की धुंध में धुआं-धुआं सी ज़िन्दगी
कुछ ख्वाबों की चाहतों में फ़ना ये ज़िन्दगी
कभी मिली यहाँ, तो कभी मिली वहां

हर मोड़ पे किसी से आशना है ज़िन्दगी
तुम कुछ हुए हमारे, कुछ हो गए और के
वैसे भी कहाँ मिलती है मुकम्मल ये जिंदगी.

Monday, September 17, 2012

लाजवाब बर्फी

 
बर्फी लाजवाब है, इतनी कि चाहे जितनी बार इसका लुत्फ उठाएं यह आपका जायका नहीं खराब करेगी। ये सिनेमाई शायरी है। लफ्ज-लफ्ज जज्बों, अहसासों और मोहब्बतों में डूबा हुआ। मोहब्बत की हजारों कहानियां सुनी होंगी आपने, लेकिन बर्फी मोहब्बत की पुख्ता गजल है। इस मोहब्बत को सलाम।

दार्जिलिंग के नजारे लुभाते हैं। इतना कि दिल चाहता है कि आंख बंद करें और वहीं पहुंच जाएं। बारिश की बूंदों को देख उनमें भीग
जाने का मन करता है। रात के कुछ सीन तो इतने बेहतरीन हैं कि पूछो मत। लगता है जैसे किसी जादूनगरी में पहुंच गए हैं।


और हां, सबसे खास हैं प्रियंका चोपड़ा। प्रियंका के हुस्न के कई रंग हम देख चुके हैं, लेकिन जितनी प्यारी और मासूम इस फिल्म में वह दिखी हैं, शायद फिर कभी ना दिखें। रणबीर का जवाब नहीं। बिना कुछ बोले वो बहुत कुछ कह गए हैं। हालांकि चौकाती हैं इलियाना डि क्रूज। सौम्य...नाजुक...खूबसूरत। अभिनय में भी उतनी ही लाजवाब, लगता ही नहीं कि पहली हिंदी फिल्म है।

बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म की आत्मा है और गाने सांस के सरीखे हैं। संवादों की कमी अखरती नहीं। प्रीतम का शायद यह सबसे बेहतरीन काम होगा अब तक का।

हां, संपादन में थोड़ी कमियां जरूर रह गई हैं, लेकिन जब बर्फी शुद्ध घी की बनी हो तो आकार मायने नहीं रखता।

शुक्रिया अनुराग! इस मिठास भरी लाजवाब बर्फी के लिए।

Monday, September 3, 2012

बच्चे की जान लोगे क्या



ल-सुबह सड़कों पर कदमताल करते हुए कुछ दिलचस्प नजारे देखने को मिलते हैं। छोटे-छोटे, चुन्नू-मुन्नू बच्चे आंखें मींचे अपनी स्कूल वैन का इंतजार कर रहे होते हैं। पीठ पर बस्ते का बोझ, हाथ में खुली कोई किताब और आंखों पर चढ़ा मोटा चश्मा। उन आंखों में कभी झांककर देखो तो एक डर, एक खौफ सा नजर आता है। साथ में खड़े मां-बाप, ममता की मूरत नहीं, किसी पहरेदार सरीखे नजर आते हैं।

ऐसे ही एक बेटे-बाप की जोड़ी को हर रोज देखता हूं। बेटा सड़क किनारे खड़ा, हाथ में किताब थामे, अपनी स्कूल वैन का इंतजार कर रहा होता है। पिताजी अपने बेटे से दूर और स्कू  टर के ज्यादा नजदीक नजर आते हैं। दोनों में संवाद नहीं। आगे चलकर यह संवादहीनता क्या असर डालेगी?

एक वाकया याद आ रहा है। एक मित्र अपने चार साल के बच्चे का स्कूल में एडमिशन कराने गए। प्रिंसिपल महोदया बच्चे की उम्र सुनते ही बोलीं- सालभर पहले ही ले आते। अब तक तो यह काफी कुछ सीख चुका होता। यह सुनकर मित्र ने उन्हें खरा-खरा जवाब दे दिया, मैडम हम अपने बच्चे का बचपन नहीं छीनना चाहते थे। एक अन्य मित्र शान बघार रहे थे। हमारा बेटा तो फलां स्कू  ल में पढ़ता है। इतनी तो सिर्फ उसकी फीस ही है। हर साल टॉप-थ्री में तो आता ही है। इतने गुणगान के बाद जब बच्चा सामने आया तो लगा कोई 'मरीज' है। हद से ज्यादा मोटा और आंखों पर वक्त से पहले चढ़ गया चश्मा। अपने में गुमसुम।

मैंने उसकी दिनचर्या जानी तो हैरान रह गया। सिर्फ 5 साल का बच्चा, सुबह 5:30 बजे स्कूल जाने के लिए तैयार हो जाता है। इससे पहले वह रात में 11 बजे तक जागकर टीवी भी देखता रहता है। एक बच्चे के लिए कम से कम 10 घंटे की नींद जरूरी होती है। क्या उसे जरूरत के मुताबिक पूरी नींद मिल रही है?

कहते हैं बच्चे देश का भविष्य होते हैं। ये कौन सा भविष्य तैयार हो रहा है भाई? क्या हम इंसानों के बजाए जीते-जागते रोबोट नहीं तैयार कर रहे हैं? तो जिम्मेदार कौन है? वह मां-बाप जो अपने लाडले से बेरहमी से पेश आ रहे हैं, या वो समाज जिसमें तरक्की के पैमाने बदल रहे हैं, या वो स्कूल जो अलसुबह से ही क्लास शुरू कर देते हैं, ताकि दोपहर में एक और शिफ्ट चलाकर वह मोटा मुनाफा कमा सकें?
निदा फाजली याद आ रहे हैं-

"बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो, चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे"


(Published in News Today)

Saturday, July 14, 2012

मौसम-ए-जुदाई में बरसात

मौसम-ए-जुदाई में जो बरसात हुई
भीगने हम भी जा पहुंचे छत पर लेकिन
स्वाद बूंदों का अबकी कुछ खारा सा लगा
तुम्हारे आंसू भी इसमें शामिल तो नहीं? 

पी गए हम इनको भी ग़म समझकर
भीगकर बैठे रहे बहुत देर तक ये सोचा
क्या पता इन बूंदों के बहाने
तुमने हमें सावन का कोई पैगाम भेजा हो







(ये पक्तियां भी लिखी गयीं) 

वो बाग़, वो शाख, वो गलियां सूनीं
तुम्हारे साथ जो कभी आबाद रहती थीं
अभी तो हम हैं और है ये तन्हाई
कहाँ कि बारिश, कौन सा बरसात का मौसम
-----------------------------

बरसते मौसम से ये गुज़ारिश मेरी
अबकी बरसे तो तरसता ना छोड़े
इतनी बूंदें आ जाएँ मेरे हिस्से में
कि हरा-भरा हो जाए विरह का मौसम

Monday, July 9, 2012

ज़िन्दगी में मौत

Courtesy: Google
कल ही किसी ने गोली मार दी
आधी रात को
लहू से लथपथ अपने जिस्म को लिए
मैं तड़पता रहा बहुत देर तक
तमाम हसीन परछाईयाँ गुजरी मेरी तरफ से
मगर हाथ में थीं उनके नंगी तलवारें
मदद नहीं मांगी मैंने
डर था,
जान बची है देखकर, वो मेरा गला रेत देंगी
मौत हर पल करीब आती जा रही थी
तभी अलार्म बजा और नींद खुल गयी
सुबह से सोच रहा हूँ
अभी ज़िन्दगी में कितनी मौत बाकी है

Sunday, July 1, 2012

आम का मौसम और तुम्हारी यादें

तस्वीर गूगल से साभार
वो पहली बारिश का सोंधापन
वो बाग़ में आमों का झुरमुट
पेड़ पर चढ़ना और डालियाँ हिलाना
फिर पूछना तुमसे,
क्या कोई पका आम गिरा है
कोई जवाब न मिलना
और तुम्हारा कच्चे आमों पर लट्टू होना
कच्ची उम्र की तमाम यादें
इंटर या बीए के साल की
जब पहली बार बेहाल हुए थे
हाँ-हाँ उसी साल की

बदलते मौसम में तुम्हारा मेरे गाँव आना
बरसती बूंदों सा मुझ पर छा जाना
और तुम्हारे जाते ही गाँव का मौसम बदल जाना
फिर अगले साल तक पहली बारिश का इंतज़ार
और पहली जून से ही मेरा बेचैन हो जाना
बीत चुके हैं बरसों तुम्हे आये मेरे गाँव में
पर यादों का मौसम आबाद है तुम्हारी यादों से
लगता है जैसे सब कल ही की तो बात है

कभी फुरसत निकालो, फिर आओ
मेरे गाँव का मौसम बदल जाओ
हमने भी कई आम के पेड़ लगाये हैं
उनकी शाखों पर झूमती तुम्हारी अदाएं है

Wednesday, June 27, 2012

पिंकियों का मुसीबत काल

Published in News Today

डिसक्लेमर- तमाम पिकिंयों से हार्दिक क्षमाप्रार्थना। आग्रह है कि इसे दिल पर ना लें, दिमाग से ही निबटा दें।

जबसे पता चला है कि 'पिंकी' महिला नहीं बल्कि पुरुष है, भारी मुसीबत खड़ी हो गई है। तमाम 'पिंकी' नाम की लड़कियों के ब्वॉयफ्रेंड उन्हें शक की निगाहों से देखने लगे हैं। बार-बार फोन करके और अन्य तरीकों से पुष्टि कर लेना चाहते हैं कि 'पिंकी' कहीं 'पिंका' तो नहीं। इन ब्वॉयफ्रेंडों का शक तब और गहरा होने लगता है जब उनकी 'पिंकी' नामक गर्लफ्रेंड दौड़ती नजर आती है। अपनी 'पिंकी' के चेहरे में उन्हें वही 'पिंकी' नजर आने लगती है जिसपर शक है कि वह 'पिंका' है। अगर ब्वॉयफ्रेंड अकेले फिल्म देखने के लिए बुलाता है और 'पिंकी' ना जाए तो ब्वॉयफ्रेंडों का शक और गहरा हो जा रहा है। एेसे में जिन ब्वॉयफ्रेंडों की गर्लफ्रेंडों का नाम 'पिंकी' है, उनके फ्रेंडों में भी यह बड़ी चर्चा का विषय है। भाई लोग अपने ही यार का मजाक उड़ाए डाल रहे हैं। अबे, देख लियो फिर मामला गड़बड़ ना हो जाए। अब बेचारे ब्वॉयफ्रेंड मुंह छुपाए घूम रहे हैं। एक भाई की गर्लफ्रेंड का नाम 'पिंकी' है। उसने अल्टीमेट उपनाम निकाला है अपनी गर्लफ्रेंड के लिए। किसी से इंट्रोडक्शन कराना हो तो कहता है, ये 'छुई-मुई' है।

लड़कों के परिजनों और प्रियजनों ने भी उन्हें चेतावनी दे डाली है। बेटा चाहे जो कर लेना पर किसी 'पिंकी' के चक्कर में ना पडऩा। बाद में लेने के देने पड़ जाएंगे, पता चला उधर 'पिंकी' मेडल और तमगे हासिल कर रही है और इधर तुम्हारा घर बर्बाद हो रहा है।

दिलचस्प बात यह है कि सिर्फ ब्वॉयफ्रेंड ही नहीं, तमाम पति भी अपनी 'पिंकी' नाम की पत्नियों का नए सिरे से निरीक्षण-परीक्षण करने में जुट गए हैं। संयोगवश एक जनाब मिल गए जिनकी पत्नी का नाम 'पिंकी' था। बेचारे बेहद मायूस से नजर आए। पूछने पर पता चला कि भाई मामला तो ओके टेस्टेड है कि 'पिंकी' ही है, लेकिन जब हाथ में बेलन होता है वह किसी भी पिंका से ज्यादा खतरनाक नजर आती है।

उधर इस सिचुएशन में बेचारी पिंकियां भी परेशान हैं। एक 'पिंकी' नामक लड़की अपनी सहेली से बात कर रही थी। क्या मुसीबत है यार। पता नहीं कहां से 'पिंकी' टपक पड़ी। अगर ब्वॉयफ्रेंड के साथ घूमते वक्त गलती से भी किसी लड़की की तरफ निगाह चली जाती है तो ब्वॉयफ्रेंड अजीब हरकतें करने लगता है। ब्वॉयफ्रेंड के साथ होते हुए किसी सहेली का फोन आ जाए तो भी मुसीबत। कितनी सफाई देनी पड़ती है। वह बताए जा रही है। पता है मैं इस बार अपने स्कू  ल के एथलेटिक्स इवेंट में पार्टिसिपेट करने वाली थी, लेकिन अब आइडिया ड्रॉप कर दिया है। ख्वामखाह कंट्रोवर्सी नहीं चाहती। बेचारी पिंकियां।

(Published in News Today)

Thursday, May 24, 2012


महंगाई बनी सौतन
 
झुलनी, नथुनी, कंगना सपना
सपना सैर सपाटा,
महंगाई को देखकर खुशियों ने कर ली जीवन से टाटा।

सजनी हैं हैरान सजनवा इतना पैसा पाते
फिर काहे को घर में चीजें थोड़ी-थोड़ी लाते
क्‍या कोई सौतनिया आ गई मेरे जीवन में?
सोचके उनके दिल में लग गया भारी कांटा।

सजना हैं हैरान, जुटाते तिनका-तिनका सामान
सह रहे झिड़की और अपमान
कितनी भी कंजूसी कर लें खर्च ना पूरा पड़ता
घरवाली के नखरे जैसी बढ़ती ये महंगाई

इसी बीच पत्‍नी ने आकर आशंका जतलाई
क्‍योंजी पैसा कहां खरचते, घर में चीज एक ना आई
सुनकर ये बातें सजना ने पीट लिया है माथा
तुम्‍हें नहीं मालूम है कितनी बढ़ गई महंगाई?

रोज-रोज तो दाम हैं बढ़ते, पर ना कमाई बढ़ती
100 रुपए में भी अब तो सब्‍जी कम ही चढ़ती
तुम्‍हीं बताओ इतने पैसे में मैं कितना ला पाता
कहते-कहते भैया जी को आने लगी रुलाई

सुनकर सबसे पहले तो पत्‍नी थोड़ा सा मुस्‍काई
पतिदेव के समझ में लेकिन बात नहीं ये आई
मैं नाहक शक कर बैठी तुमपर, सोचा कोई सौतन है
पर इस युग में तो मेरी सौत बनी महंगाई

कार्टून- साभार
 

Wednesday, May 9, 2012

बारिश और 'मिनी मुंबई' में मैजिक का सफर


रीगल टू एलआईजी वाया पलासिया

बारिश मिजाज पर बहुत असर डालती है। आसमान से बूंदें जब जिस्म पर गिरती हैं तो वाकई मिजाज खुश हो जाता है। लेकिन जैसे ही यह बूदें जमीन पर गिरकर कीचड़ बनाती हैं सारा मिजाज बेकार हो जाता है। कल शाम की बारिश ने भी शहर के साथ-साथ मेरे मिजाज पर असर डाला। करीब चार बजे से शुरू हुआ गरज-चमक का सिलसिला बूंदा-बांदी और फिर मूसलाधार बारिश में तब्दील हो गया। अपने कमरे में अनमना सा बैठा मैं बारिश रुकने का इंतजार कर रहा था, ताकि बाहर निकलकर कुछ घूम-घाम सकूं। हालांकि बारिश के बाद अफरा-तफरी और फिर कीचड़ के चलते थोड़ी हिचक भी हो रही थी। फिर कहीं पढ़ी एक लाइन याद आई कि बारिश किसी शहर की 'औकात' बता देती है।
इस बहाने को हथियार बनाकर मैंने नासाज तबियत को थोड़ा तसल्ली दी और निकल पड़े 'मिनी मुंबई' की पड़ताल करने।

निकलते ही कदम कीचड़ में
सिख मोहल्ला से निकलकर पलासिया के लिए मैजिक पकडऩे की प्लानिंग बनाई। मगर गली में कीचड़ देख मूड बिगड़ गया। सिर मुड़ाते ही ओले की जगह कदम निकालते ही कीचड़ में पांव की कहावत बन गई। खैर, इनसे जूझते गुरुद्वारे के करीब पहुंचे और खुशकिस्मती से तुरंत ही मैजिक मिल भी गई। इस बीच जगह-जगह जमा पानी और गाडिय़ों की बेतरतीबी देख अंदाजा हो गया कि सफर आसान नहीं होने वाला।

दुनिया की चिंता मैजिक में बैठकर
अभी मैजिक गांधी हॉल के करीब पहुंची थी कि बारिश तेज हो गई। हाथ बाहर निकालकर चखने की कोशिश की, मगर वो स्वाद नहीं मिला। बाहर बरसात और मैजिक में बातों की बारिश हो रही थी। एक अम्मा जी की चिंता जायज थी- चलो भगवान सबकी सुनता है। बरसात हो गई अब पानी की समस्या कुछ सुलझेगी। मगर इसके काउंटर में जो समस्या आई वह ज्यादा चिंताजनक थी। मैजिक में ही बैठे एक सज्जन ने सवाल उठाया, मगर उन किसानों का क्या जिनकी फसल बर्बाद हो जाएगी। फिर इसका असर गेहूं के दाम पर भी तो पड़ेगा। अचानक महंगाई का दानव और प्रबल होता दिखा और जिस बारिश का मैं लुत्फ उठाना चाह रहा था वह विलेन नजर आने लगी।

बदहाल ट्रैफिक, बेहाल लोग
शनिवार की शाम बारिश ने कईयों का मजा किरकिरा किया। ऑफिस से जल्दी घर जाकर फैमिली के साथ आउटिंग का प्लान भी फेल हुआ। वहीं बारिश के चलते ट्रैफिक भी बदहाल नजर आया। जगह-जगह पानी भर जाने से भी लोग परेशान हाल रहे। टीआई के आस-पास, छप्पन और पलासिया में सड़कों किनारे लगे पानी के चलते मुश्किलें थीं। जिनके पास अपने वाहन थे, वह भी और जो पब्लिक कनवेंस के भरोसे थे वह भी बेहाल। किसी भी तरह अपनी मंजिल तक पहुंचाने वाले वाहन पर लद जाने की बेकरारी और अफरातफरी दिखी।

'सिचुएशनल' गाली
पलासिया में मैंने एलआईजी के लिए मैजिक बदली, मगर हालात नहीं बदले। बाहर बरसात कभी कम तो कभी तेज हो रही थी। ऐसे में विजयनगर और देवास नाका जाने वालों की बेचैनी समझी जा रही थी। महिला सवारियों की हालत और मुश्किल थी। पलासिया से एलआईजी के बीच ऐसी सवारियां दिखीं। अपोलो के सामने एक बंदे ने परदेसीपुरा के लिए पूछा और जब मैजिक वाले ने विजयनगर बताया तो उसके मुंह से निकली गाली पूरी तरह सिचुएशनल थी। अभी तक सिनेमा में सबकुछ सिचुएशनल देखने की आदत रही, रियल लाइफ में यह अनुभव दिलचस्प रहा।

'मिनी मुंबई' की क्या औकात
खैर, मेरा सफर तो एलआईजी तक ही रहा, लेकिन मैजिक से बाहर निकलते ही जोरदार बारिश ने मेरा इस्तकबाल किया। अब तक अंदर बैठकर जिस नजारे का मैं लुत्फ उठा रहा था, अब उसका भुक्तभोगी था। वैसे मैं अकेले कहां था, तमाम लोग भीग रहे थे। कुछ शौकिया तो कुछ मजबूरन।
अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते हुए मैं सोच रहा था, किस बात की 'मिनी मुंबई' यार! वही कीचड़, वही खराब ड्रेनेज सिस्टम। जब मेन रोड का यह हाल है तो अंदर की गलियों की बदहाली का आलम क्या होगा? तभी याद आया, बारिश में तो मुंबई भी बेहाल हो जाती है, फिर 'मिनी मुंबई' की क्या औकात?

Published in News Today on 6th May 2012

Sunday, May 6, 2012

बोलो साथी

बोलो साथी
तुम बिन जीना मुश्किल कैसे मर जाना आसान है क्यूँ
मिलने में बरसों लग जाते छुट जाना आसान है क्यूँ
बोलो साथी

बोलो साथी कैसे हैं ये मेल-मिलाप, जुडन-बिछुड़न
साथ हो तो सब अपने लगते दूर हो तो सब अनजान हैं क्यूँ 

बोलो साथी
हम-तुम सपनों की नगरी में कितनी बातें करते हैं
हाथों में हाथों को थामे मीलों चलते रहते हैं
मगर हकीकत की दुनिया में ये सब नाफरमान है क्यूँ
बोलो साथी

एक हमारे दिल हैं, धड़कन, जज्बातों में भाव हैं एक
एक हमारा नाता-रिश्ता, दिल भी एक, चाह भी एक
दो जिस्मों में एक ही दिल है, फिर हम दो इंसान हैं क्यूँ
बोलो साथी

इश्क तुम्हारा इश्क है मेरा, जान तुम्हारी मेरी जान
आँखों में तेरा चेहरा है, कानो में तेरी ही बात
सांसों में तेरी ही सांसें, फिर अलग-अलग पहचान है क्यूँ
बोलो साथी




Deepak Mishra





Monday, April 9, 2012

अनाकरली...डिस्को क्यों चली?


मसला बेहद पेचीदा हो चला है इसलिए जनता दरबार में पेश कर रहा हूं। आखिर ऐसा क्‍या हो गया कि जिस अनारकली के लिए सलीम ने मुगलिया सल्तनत से पंगा ले लिया आज वह उसी सलीम को छोड़-छाड़ कर डिस्को चल दी? मां बदौलत के दरबार में जब सलीम ने बगावत की होगी तो उसे अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि वक्त ऐसा भी सितम उस पर ढाएगा।

यह भी ताज्जुब की बात है कि इसी सलीम की मोहब्बत की खातिर कभी अनारकली ने दीवार में चुनवाया जाना कुबूल कर लिया था। मुगलिया दरबार में जिस अनारकली ने 'प्यार किया तो डरना क्या' गाया, आज वही अनारकली बाजार की धुन पर डिस्को में ठुमके लगाने पर आमादा है।

क्यूं अनारकली क्यूं? क्या सलीम की आत्मा बादशाह अकबर की आत्मा को कैसे फेस कर रही होगी? बादशाह अकबर की आत्मा सलीम को सुना रही होगी- देखा शेखू, जिस रक्कासा को तू अपनी महबूबा बनाने की ठाने था उसने कैसे रंग बदल लिए हैं। आखिर उसे बाजार ही रास आया।

वहीं पास में कहीं के आसिफ भी तड़प रहे होंगे, कौन है ये नामाकूल साजिद खान? जिसने हमारी बरसों की मेहनत के बाद बनाई मोहब्बत की पाक दास्तान को यूं नापाक किया है। अनारकली ही मिली थी उसे डिस्को भेजने के लिए? अरे शीला, मुन्नी से लेकर जलेबीबाई तक को तो ये लोग बदनाम कर चुके हैं। अब अनारकली को भी नहीं छोड़ा।

वहीं अनारकली को मनाने की तमाम कवायदें हो रही हैं। सलीम तो सलीम बादशाह अकबर भी लगे हैं। अरे मान भी जाओ अब! ये जिद छोड़ दो। इस तरह डिस्को जाओगी तो लोग क्या कहेंगे? आखिर इतनी पुराने जमाने की मोहब्बत की मिसाल हो। मुगलिया सल्तनत के एक राजकुमार ने कभी इश्क फरमाया था तुम्हारे साथ। क्यों तुम उसे नापाक करने पर तुली हो? मुगलिया सल्तनत का जिक्र आते ही वह चिढ़ जाती है। वाह जहांपनाह! जिस मुहब्‍बत के लिए आपने मुझे भटकने के लिए छोड़ दिया आज उसी मुहब्‍बत का आप मुझे वास्‍ता दे रहे हैं?

अनारकली का लॉजिक अलग है। वह बादशाह अकबर से कहती है अब मैं आपके इस मुगलिया सल्तनत के झूठे अहंकार पर कुर्बान नहीं होने वाली। इसी का वास्ता देकर आपने मुझे अपनी सल्तनत से दर-ब-दर कर दिया। मैं अपनी मां के साथ कहां-कहां नहीं भटकी। आगरे से चली थी 1960 में आज 2012 में मुंबई पहुंची हूं। आपको कहां फिकर रही मेरी। अब जाकर साजिद खान ने मुझे सही रास्ता दिखाया है। डिस्को जाकर मैं दुनिया मेरे साथ थिरकेगी, मेरे नखरे उठाएगी मैं सबकी नजरों में तो रहूंगी। मेरी मार्केट वैल्यू तो बढ़ेगी। पेट भर खाना और ऐश-ओ-आराम तो मिलेगा।

आपको आपकी मुगलिया सल्तनत मुबारक...अनारकली डिस्को चली...

Saturday, March 31, 2012

सपनों के रंग


सपनों में जीने की आदत पड़ चुकी है
इस कदर कि जागते हुए भी, आंखों में कोई सपना चलता है
कुछ अधूरी आरजुओं पर मन मचलता है
सिर्फ मेरी ही नहीं हर किसी की जिंदगी में
ये सिलसिला बचपन से है
तब छोटे थे, चीजों पर बस नहीं था
सपने देखे, बड़े हुए और बे-बस हो गए
मगर आदत नहीं छूटी सपने बुनने की
हां, फर्क तो आया है
तब और अब के सपनों में
बचपन के उन सपनों में रंग थे
अब सपनों से रंग गायब हैं
जिंदगी के कुछ रंग देखकर
सपनों ने रंग बदल लिए हैं
अब अपनों ने भी रंग बदल लिए हैं
झक सफेद तो कभी सिर्फ काले सपने आते हैं
अब इनसे दिल नहीं बहलता
अब ये मुझे डराते हैं

Wednesday, March 14, 2012

बचपन की बातें


बहुत साल पहले, बचपन में
तुमने एक टहनी दी थी मुझे
बहुत सहेजकर
ले जाना, लगा देना इसे गीली मिट्टी में
और भिगोते रहना तब तक
जब तक दो-चार पत्ते ना निकल आएं
मैं वो टहनी लाया, गीली मिट्टी में उसे लगाया
खूब भिगोता रहा
सुबह उठते ही, शाम को स्कूल से वापस आते ही
मगर उस टहनी से पत्ते नहीं फूटे
मुझे यकीन नहीं हुआ, तुम झूठ थोड़े कहोगी
मैंने ही गलती की होगी
पानी डालने में या निगरानी करने में
आखिर वो टहनी सूख गई
मुझे लगा जैसे तुम मुझसे रूठ गई
सोचा था अगले साल जब फिर आऊंगा
एक नई टहनी तुमसे मांगकर लाऊंगा
पूरे जतन से उसमें पत्ते उगाऊंगा
आखिर तुम्हें यूं रूठा हुआ कैसे छोड़ पाऊंगा
उस अगले साल का अब तक इंतजार है
तुम्हें मनाने को दिल अब भी बेकरार है

Saturday, March 10, 2012

'दीवार' तो चली गई



तमाम हसरतें और दर्द समेटे राहुल द्रविड़ ने टेस्ट क्रिकेट को भी अलविदा कह दिया। इसके साथ ही क्रिकेट के सभी संस्करणों से 'दीवार' चली गई। चेहरे पर एक खास तरह का भाव लिए द्रविड़ ने कभी खुद को जाहिर नहीं किया। ना मैदान पर ना मैदान के बाहर, लेकिन उनके दर्द को महसूस किया जा सकता है। भला कौन खिलाड़ी विश्वकप विजेता टीम का सदस्य नहीं बनना चाहेगा। लेकिन द्रविड़ को अपने ही घर में होने वाले विश्वकप के लिए टीम में शामिल नहीं किया गया। द्रविड़ एक ऐसी टीम के हिस्सा थे, जहां सचिन और सौरव गांगुली जैसे स्टार थे। उनकी तमाम उपलब्धियां इन स्टार खिलाडिय़ों की छाया में दबती रहीं। याद कीजिए 1996 का इंग्लैंड दौरा। लाड्र्स के मैदान पर खेला गया दूसरा टेस्ट द्रविड़ और गांगुली दोनों का ही डेब्यू मैच था। इसी मैच में शतक बनाकर गांगुली स्टार बन गए और द्रविड़ शानदार 95 रन बनाने के बावजूद सुर्खियों में जगह नहीं बना पाए। द्रविड़ जैसे बल्लेबाज के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जब कभी उन्होंने कोई बड़ा कारनामा किया, श्रेय बांटने के लिए कभी गांगुली खड़े थे, कभी सचिन तो कभी लक्ष्मण। ईडन गार्डन के मैदान पर कंगारुओं का विजय रथ रोकने में लक्ष्मण के साथ द्रविड़ का भी बड़ा रोल रहा। लेकिन आज जेहन में पहले लक्ष्मण का ही नाम आता है। इन तमाम बातों के बावजूद द्रविड़ ने एक नए नायकत्व की परिभाषा गढ़ी। नेपथ्य से नेतृत्व करते हुए वह हमेशा टीममैन रहे। उन्होंने कभी श्रेय लूटने की आतुरता नहीं दिखाई।


हमेशा साबित किया खुद को
असल में द्रविड़ की बल्लेबाजी देखना किसी क्लासिक मूवी को देखने जैसा है। यहां कोई चमत्कार नहीं होता, मगर जब शो खत्म होता है तो अहसास होता है कि वाह, क्या क्लास था! द्रविड़ ने भले ही बहुत ज्यादा छक्के ना लगाए हों, लेकिन तमाम गेंदबाजों के दंभ को उन्होंने अपनी ही स्टाइल में चकनाचूर किया है। द्रविड़ के क्रिकेट तकनीक के बारे में विशेषज्ञ टिप्पणियां कर चुके हैं। द्रविड़ के सामने हमेशा हालात मुश्किल रहे और उन्होंने हर बार खुद को साबित भी किया। तब भी जब उनके ऊपर टेस्ट बल्लेबाज का ठप्पा लग चुका था। उन्हें वनडे के काबिल नहीं माना जाता था। शर्त थी कि वह विकेटकीपिंग करना स्वीकार कर लें तो वनडे टीम में उनकी जगह बन जाएगी। कोई और खिलाड़ी होता तो शायद एटीट्यूड दिखाता, लेकिन द्रविड़ ने यह खुशी-खुशी स्वीकार किया। उन्होंने इसे बाकायदा साबित भी किया। दक्षिण अफ्रीका में खेले गए 2003 विश्वकप को याद करें। वह टूर्नामेंट के दूसरे सबसे सफल विकेटकीपर-बल्लेबाज थे। टीम के लिए द्रविड़ ने हमेशा खुद को आगे रखा। चाहे वह कठिन हालात में टीम को उबारने के लिए खेली गई उनकी पारियां हों या आगे रहकर जिम्मेदारी उठाने की बात। ना जाने कितने मौके आए जब द्रविड़ से ओपनिंग करने के लिए कहा गया और उन्होंने खुशी-खुशी की।

ग्लैमर की चकाचौंध से दूर
द्रविड़ की क्षमता असीम रही है। उन्होंने संभावनाओं से परे जाकर भारत के लिए कई असाधारण पारियां खेलीं। मगर जिन बातों ने मुझे उनका मुरीद बनाया वह है उनका एक असाधारण इंसान होना। आज हर तीसरे मैच में एक स्टार पैदा हो जाता है। आईपीएल की बदौलत पैसे कमाने में भी क्रिकेटर आगे हैं, लेकिन दूसरा द्रविड़ अब होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। याद नहीं आता कभी उन्होंने मैदान पर या मैदान के बाहर अनावश्यक जोश का इजहार किया हो। मैदान के बाहर भी कभी कोई विवाद नहीं हुआ। ग्लैमर की दुनिया में रहते भी उन्होंने इस दुनिया की तमाम फितरतों से उन्होंने खुद को बचाए रखा। जिस दुनिया में क्रिकेटर सफल होते ही नखरे दिखाने लगते हैं, द्रविड़ एक अलग ही मिसाल बनकर उभरे। दुनियाभर की महिलाओं में बेहद लोकप्रिय होने के बावजूद उनका नाम कभी किसी अभिनेत्री या मॉडल से नहीं जुड़ा और उन्होंने शादी भी की तो एक ऐसी लड़की से जो क्रिकेट की एबीसीडी भी नहीं जानती थी। अब भले ही द्रविड़ अंतर्राष्ट्रीय मैचों में नहीं दिखेंगे, मगर यह सच है कि वह तमाम क्रिकेटप्रेमियों के जेहन में हमेशा बसे रहेंगे एक असली हीरो की तरह।

न्यूज टुडे में प्रकाशित

Friday, March 2, 2012

तिग्‍मांशू का एक और कमाल : पान सिंह तोमर

सबसे पहले एक खास बात-
यह डाकुओं पर बनी पहली ऐसी फिल् होगी जिसमें डाकुओं ने घोड़े नहीं इस्तेमाल किये हैं।

यह समाज की विडंबना है कि यहां अच्‍छी चीजों और कामों को सही वक्‍त पर तारीफ नहीं मिलती। पान सिंह तोमर भी इसी विडंबना को व्‍यक्‍त करती है। जब तक पान सिंह सिपाही था, दौड़ता था, देश के लिए मेडल जुटाए, तब किसी ने नहीं पूछा। डाकू बनते ही उसकी सुर्खियां बनने लगती हैं। रेडियो पर नाम आने लगता है। पान सिंह अपना इंटरव्‍यू लेने आए पत्रकार से पूछता है, जब वह खिलाड़ी था तो उसका इंटरव्‍यू लेने क्‍यों नहीं आया।

कुछ लोग सिर्फ बेचने के लिए फिल्‍में बनाते हैं और कुछ लोग सिर्फ अच्‍छी फिल्‍में बनाते हैं। तिग्‍मांशु धूलिया दूसरी तरह के लोगों में से हैं। उनकी अपनी एक शैली है, एक अंदाज है और एक पैमाना भी। जब तक चीजें उस पर खरी नहीं उतरतीं सामने नहीं आतीं। डाकू, बदला, गांव, पुलिस, मुखबिर इन सबको मिलाकर कई फिल्‍में बन चुकी हैं, लेकिन तिग्‍मांशु धूलिया ने पान सिंह तोमर सबसे अलग रखा है।बीहड़ में तो बागी होते हैं, डकैत तो पार्लियामेंट में होते हैं. जैसे डॉयलॉग्‍स ने फिल्‍म को पहले ही चर्चित कर दिया है।

पान सिंह तोमर एक आम आदमी की कहानी है। जी हां, उसे खास तो व्‍यवस्‍था बना देती है, उसके हाथ में बंदूक थमाकर, उसे डाकू बनाकर। पान सिंह कभी उसूलों और कायदों के खिलाफ नहीं जाता। तब भी नहीं जब उसके कोच उसे 5000 मीटर दौड़ से स्‍टीपलचेज में शिफ्ट होने को कहते हैं, तब भी नहीं जब उसकी लाख इच्‍छा होते हुए भी उसे जंग के मैदान में नहीं भेजा जाता है, क्‍योंकि वह खेल से है। उसके दिल में कसक होती है। साथी ताने मारते हैं, मगर वह अडिग है। तब भी नहीं जब दुश्‍मनों के हाथों बुरी तरह पिटाई के बाद उसका बेटा जिंदगी से जूझ रहा होता है।

हर बार वह कानून और नियम से चलने की बात करता है। मगर जब थाने में उसकी सुनवाई नहीं होती। कानून उसका और उसकी उप‍लब्धियों का मजाक उड़ाता है और उसकी मां की जान चली जाती है तो वह मजबूर हो जाता है। इसी मजबूरी में वह बंदूक उठा लेता है, मगर उसूल नहीं छोड़ता। वह चाहता तो सरेंडर करके एक बेहतर जिंदगी गुजार सकता था, मगर उसके लिए रेस अधूरी छोड़ना मुमकिन नहीं। वह दम तोड़ देता है, मगर अपने कायदे पर कायम रहता है।

कहानी तीन परतों में है। पान सिंह के फौजी से एथलीट और फिर डाकू बनने की कहानी को तिग्‍मांशू धूलिया ने बेहद खूबसूरती से पिरोया है। बिना ज्‍यादा भटके और बिना ज्‍यादा भीड़ जुटाए वह कहानी की तीनों परतों को पर्याप्‍त विस्‍तार और गहराई देने में सफल हैं। यही तिग्‍मांशू की सबसे बड़ी सफलता है कि वह कथ्‍य और विषय से भटके नहीं हैं। बल्कि उसे शानदार तरीके से बुना है। कसावट और कहानी की रफ़्तार से बढि़या साम्‍य बिठाया है। चूंकि फिल्‍म चंबल पर आधारित है इसलिए डायलॉग में यहां का डायलेक्‍ट और टोन भी है। ग्‍वालियर और मुरैना में इस्‍तेमाल होने वाले शब्‍द मोड़ा (लड़का), मोड़ी (लड़की) और 'हौ' जिसे मध्‍यप्रदेश में स्‍वीकारोक्ति के तौर पर बोलते हैं, शामिल है।

पूरी फिल्‍म इरफान खान की है और इरफान ने अपने किरदार को निभाया भी खूब है। कुछ दिन पहले एक इंटरव्‍यू में तिग्‍मांशू ने कहा था कि उन्‍होंने इस फिल्‍म में इरफान को इसलिए लिया क्‍योंकि उनसे जो चाहिए निकलवाया जा सकता है, मांगा जा सकता है। इरफान ने इस बात को फिल्‍म में बखूबी साबित कर दिया है। अपने किरदार के सभी लेयर्स को वह बखूबी जी गए हैं। इरफान की खास बात यह है कि वह कभी किसी सिंबल, अतिरिक्‍त बनावट या हावभाव का सहारा नहीं लेते। उनका सबसे प्‍लस प्‍वॉइंट उनकी आंखें और संवाद अदायगी है। बस इन्‍हीं दोनों के सहारे वह अपने किरदार को पूरी तरह उभार लेते हैं ।

डायलॉग में आंचलिक शब्‍दों का इस्‍तेमाल करते हुए वह अटकते नहीं। जहां तक माही गिल की बात है तो रोल में बहुत लंबाई ना होने के बावजूद उनके लिए करने को बहुत कुछ था, लेकिन अफसोस वह उसमें एक हद तक ही सफल हुई हैं। उनका किरदार भी इरफान की संगत में ही बेहतर होता है। हालांकि एक बेबस पत्‍नी और मां के तौर पर वह खुद को पूरी तरह जाहिर नहीं कर पाई हैं। नॉन ग्‍लैमरस रोल में वह कहीं से प्रभावित नहीं कर पातीं। बाकी किरदारों ने भी अपने रोल के साथ न्‍याय किया है।

फिल्‍म के कुछ सीन बेहद लाजवाब हैं। जब पान सिंह आखिरी बार अपने परिवार से मिलने आता है। जब वह अपने बेटे से मिलने जाता है। एक और सीन है, जब सिपाही पान सिंह पहली बार घर आता है तो अपनी पत्नी को आलिंगन करते वक़्त उससे चेहरा दिखने को कहता है मगर जब वह चेहरा नहीं घुमाती तो पान सिंह आइना हाथ में लेकर उसका चेहरा देखने लगता हैपान सिंह की बेबाकी फिल्‍म में कई खूबसूरत सीन पैदा करती है।

डायलॉग्‍स भी अच्‍छे हैं और फिल्‍म में ह्यूमर का पुट भी अच्‍छा है। गानों की गुंजाइश थी नहीं और गाने का इस्‍तेमाल ना करके डायरेक्‍टर ने ठीक ही किया है, क्‍योंकि फिल्‍म की रवानी को प्रभावित करते। बैकग्राउंड साउंड अच्‍छा है। सिनेमैटोग्राफी भी बढि़या है। चंबल के बीहड़ो और गांवों की खूबसूरती एक अलग समां बांधती है।

(आखिरी पंच- फिल्म के आखिर में तिग्‍मांशू ने देश के कुछ खास एथलीटों का जिक्र किया है जो अभावों में जीवन बिताने को मजबूर हुए।)

Friday, February 10, 2012

इतना सन्नाटा क्यों है भाई...


न्यूज़ टुडे में प्रकाशित

Tuesday, February 7, 2012

इंदौर में एक शाम फ्रेंच फिल्मों के नाम

इंदौर शहर में धीरे-धीरे एक महीना गुजर चुका है। जब आया था तो खबरों, फिल्मों, क्रिकेट और कुछ नामों को छोड़कर इस शहर में मेरे लिए सब कुछ नया था। बहरहाल, धीरे-धीरे परिचय का दायरा बढ़ रहा है और अब तक तो कुछ नए ताल्लुकात भी बन चुके हैं। इस बीच हाल ही में इंदौर में पांच फ्रेंच फिल्में देखने का सुयोग हुआ। रविवार पांच फरवरी को रीगल चौराहे पर स्थित प्रीतमलाल दुआ सभागृह में सूत्रधार संस्थान ने कार्यक्रम आयोजित किया था। अखबार में खबर पढ़ी और हम भी जा पहुंचे। फ्रेंच भाषा की यह पांच लघु फिल्में अंग्रेजी सब-टाइटल्स के साथ थीं। पांच फिल्मों, द लिटिल ड्रैगन, वॉकिंग, मैडागास्कर-ए जर्नी डायरी, इन ऑवर ब्लड और डिक्स थीं। इनमें मुझे खासतौर पर तीन फिल्में द लिटिल ड्रैगन, वॉकिंग और इन ऑवर ब्लड ज्यादा पसंद आईं।

लिटिल ड्रैगन
इस फिल्म में ब्रूसली की आत्मा एक गुड्डे में प्रवेश कर जाती है। उसके बाद वह गुड्डा कैसे ऊधम मचाता है और दुनिया में अपनी पहचान बनाना चाहता है। 9 मिनट की यह फिल्म बेहद शानदार थी।





वॉकिंग
यह कहानी है एक गुजरे जमाने की अभिनेत्री मियो-मियो की। मियो-मियो अब असल जिंदगी में नानी बनने वाली है। अपने होने वाले नाती को लेकर वह बेहद असहज है और हर वक्त उसी के बारे में सोचा करती है। अपनों को लेकर हम कितना पजेसिव हो जाते हैं यह इस फिल्म में बखूबी दिखाया गया है।

मैडागास्कर- जर्नी डायरी
यह एक एनीमेटेड फिल्म है। यूरोपीय सैलानी मैडागास्कर की रोचक यात्रा के जरिए फिल्म में एक खास सभ्यता के बारे में बताया गया है। मुझे बहुत ज्यादा पसंद नहीं आई तो बहुत ज्यादा डिटेल भी याद नहीं।

इन ऑवर ब्लड
बमुश्किल दस मिनट की यह फिल्म को अगर इ शाम की सबसे शानदार फिल्म कहूं तो गलत नहीं होगा। एक 17 साल का लड़का अपने पिता के जुल्मो-सितम का शिकार है। लड़का थोड़ा गैर-जिम्मेदार है और उसका बाप रास्ते पर लाने के लिए जब तब उसे पीटता रहता है। इस बीच वह खुद बाप बनने वाला है। हालांकि उसका ध्यान अपनी पत्नी और होने वाले बच्चे पर कम और वीडियो गेम और म्यूजिक में ज्यादा रहता है। इस बीच उसकी पत्नी अपनी मां के पास चली जाती है। इधर घर पर अपने पिता की मारपीट को देखकर उसका दिल बदलता है और वह अपनी पत्नी के पास ज्यादा है। वहां पर वह अपने बच्चे को गोद में लेने तक को उसे डर लगता है। अपने पिता से अलग वह अपने बेटे को बहुत प्यार करता है और इस प्यार का नतीजा है कि उसे छूने से भी डरता है कि कहीं बच्चे को नुकसान ना हो जाए।

डिक्स बिफ
मार्क नाम का शख्स अजीब फोबिया से पीडि़त है। उसे हमेशा टाइल्स पर चलने की फोबिया है। उसे लगता है कि अगर वह खास ढंग से गिनकर टाइल्स पर कदम नहीं रखेगा तो वह भी टाइल्स की तरह बिखर जाएगा। काउंसलर उसका डर दूर करने में कामयाब होता है।

इन फिल्मों की संगत में शाम अच्छी गुजरी। मौका मिले तो आप भी देखिएगा।

Sunday, February 5, 2012

युवराज की तारीफ की, अब दुआ कीजिए


प्रिय युवराज,

तुम्‍हारी बीमारी का हाल सुनने के बाद तबीयत किस कदर भारी हो गई है, यह हम ही जानते हैं। पता चला है कि तुम अभी पूरी तरह ठीक नहीं हो पाए हो। तुम बिल्‍कुल चिंता मत करो। तुम बहुत जल्‍द स्‍वस्‍थ हो जाओगे। तुम्‍हारी बीमारी की खबर सुनकर हम सभी बहुत चिंतित हैं। मालूम होता है कि जिस बीमारी को तुम मामूली बता रहे थे, वह उतनी मामूली है नहीं। अगर यह मामूली होती तो भला कीमोथैरेपी क्‍यों की जाती। बहरहाल, तुम हमें कुछ नहीं बताना चाहते तो कोई बात नहीं।

जब विश्‍वकप में फतह के बाद तुम आंसुओं में सराबोर थे, तब हमारी आंखों के कोरे भी गीले थे। हां, तब हमें अंदाजा नहीं था कि हम सभी को यह खुशी देने के लिए तुमने कितना दर्द सहा है। अंदाजा होता भी तो कैसे? तुमने कभी हमें बताया ही नहीं। अभी तुम्‍हारे पिताजी भी बीमारी को गुप्‍त रखने की गुहार लगा रहे हैं। हो सकता है कि तुम इस बीमारी के बारे में बताकर हम सभी को चिंतित नहीं करना चाहते। मगर याद रहे युवराज, तुम सिर्फ योगराज सिंह के बेटे नहीं हो। तुम हिंदुस्‍तान के बेटे हो और हमारी दुआएं हमेशा तुम्‍हारे साथ रहेंगी।

हमें आज भी अच्‍छी तरह याद है। तुम्‍हारा वह पहला मैच। किस तरह तुमने कंगारुओं के छक्‍के छुड़ाए थे। मैदान में जब तुमने गुलाटियां लगानी शुरू कीं तो हमें अंदाजा हो गया था कि भारत के पास भी एक शानदार फील्‍डर आ गया है जो गिरने से घबराता नहीं। लॉडर्स के मैदान पर जब तुमने कैफ के साथ मिलकर अंग्रेजों का मानमर्दन किया था तो हमारा सीना गर्व से फूल गया था। टी-20 वर्ल्‍ड कप में स्‍टुअर्ट ब्रॉड की गेंद पर लगाए तुम्‍हारे वह छह छक्‍के भला क्‍या भूले हैं हम। और कितने मैच गिनाऊं? जाने कितने मौकों पर तुमने हमें फख्र करने का मौका दिया है।

विश्‍वकप में तुम जब टीम में शामिल हुए तो आलोचनाओं से घिरे हुए थे। मगर तुमने किसी की परवाह नहीं कि और अपने शानदार प्रदर्शन से खुद को साबित कर दिया। विश्‍वकप के बाद एक बार फिर जब तुम्‍हारा प्रदर्शन खराब हुआ तो हमने तुम्‍हें जाने क्‍या-क्‍या कहा। मगर अब उन बातों का सख्‍त अफसोस है। जिस दिन पहली बार तुम्‍हारी बीमारी के बारे में सुना बहुत सदमा लगा था। मगर फिर जब तुमने दिलासा दी कि नहीं चिंता की कोई बात नहीं, तो तसल्‍ली हो गई थी।

अब फिर से तुम्‍हारी बीमारी की खबर सुनकर हम परेशान हैं। मगर हमें भरोसा है कि जिस तरह तमाम कठिन हालातों मे तुमने मैच का रुख मोड़ दिया। जिस तरह तुमने तमाम हारी हुई बाजियां जीत लीं, उसी तरह तुम बिना विचलित हुए जिंदगी के इस दौर से भी जीत जाओगे। अभी तुम्‍हें कई मंजिलें फतह करनी हैं, भारत को कई मैचों में सिरमौर बनाना है। कई रिकॉर्ड अपने नाम करने हैं। हमारी दुआ है युवराज तुम जल्‍द ठीक हो जाओगे।

-भारतीय क्रिकेट प्रशंसक

(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित)


Thursday, February 2, 2012

आओ जाति-जाति खेलें



न्यूज़ टुडे में फरवरी को प्रकाशित

Sunday, January 15, 2012

यूं बिना लड़े हार जाना

जिस दीवार पर हमें नाज था वो आज पर्थ में गिर कई। वीवीएस लक्ष्मण की वेरी वेरी स्पेशल फॉर्म ना जाने कहां खो गई है। महेंद्र सिंह धोनी के जादू को जाने किसकी नजर लग गई है। जो टीम ऑस्ट्रेलिया में सिरीज जीतने के सपने के साथ पहुंची थी, उसे इस तरह बिखरते देखना दुखदाई है। उससे भी दुखदाई है टीम इंडिया के धुरंधरों का हार मान जाना। पर्थ में शून्य पर आउट होने के बाद लक्ष्मण का उदास होकर लौटना और द्रविड़ का सिर झुकाकर वापस आना देखना दिल को भारी कर गया। इन दोनों ने ना जाने कितने मौकों पर हमें गर्व से सिर उठाने का मौका दिया है। आज उनके चेहरे की उदासी और झुका हुआ सिर देखा नहीं गया। खासकर मेरे लिए और मेरे ही जैसे उन तमाम क्रिकेट प्रेमियों के लिए जिनकी सांसों में लिए क्रिकेट समाया हुआ है।

आउट होने को कौन बल्लेबाज आउट नहीं होता, मगर जिस तरह राहुल द्रविड़ हैरिस की गेंद पर लडख़ड़ाए वह शुभ संकेत नहीं है। गेंदबा उनकी तकनीक लगातार सेंध लगाते जा रहे हैं। एक के बाद एक द्रविड़ बोल्ड होते जा रहे हैं। लक्ष्मण जम नहीं पा रहे हैं, सहवाग धमाका नहीं कर पा रहे हैं। हार बुरी नहीं लगती, आत्मसमर्पण बुरा लगता है। और विदेश में पिछले सात टेस्ट मैचों से यह सिलसिला चल रहा है। यंू तो खेल में हार जीत लगी रहती है। खेलभावना भी यही कहती है कि हार का मातम नहीं मनाया जाना चाहिए, लेकिन गलतियों पर गौर करना ही होगा। अगर जीतने के बाद हमारी आरती उतारी जाती है, हार के बाद मर्सिया भी होगा।

हार के बाद कप्तान धोनी को गम मनाना भले ना गवारा हो, मगर आत्ममंथन तो करना ही पड़ेगा। इस सवाल का जवाब तो ढूंढना ही पड़ेगा कि आखिर क्या वजह रही कि जो टीम कुछ दिन पहले टेस्ट में नंबर वन थी, वह लुढ़कती जा रही है। विदेश में पहले भी मात मिली है, मगर पहले कभी इस तरह नंगा नहीं किया गया। कई बार हम जूझते हुए हारे, लेकिन इस बार तो जुझारूपन नाम की कोई चीज नहीं थी। यूं बिना लड़े हार जाना वीरों को शोभा नहीं देता।