दीपक की बातें

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Saturday, March 31, 2012

सपनों के रंग


सपनों में जीने की आदत पड़ चुकी है
इस कदर कि जागते हुए भी, आंखों में कोई सपना चलता है
कुछ अधूरी आरजुओं पर मन मचलता है
सिर्फ मेरी ही नहीं हर किसी की जिंदगी में
ये सिलसिला बचपन से है
तब छोटे थे, चीजों पर बस नहीं था
सपने देखे, बड़े हुए और बे-बस हो गए
मगर आदत नहीं छूटी सपने बुनने की
हां, फर्क तो आया है
तब और अब के सपनों में
बचपन के उन सपनों में रंग थे
अब सपनों से रंग गायब हैं
जिंदगी के कुछ रंग देखकर
सपनों ने रंग बदल लिए हैं
अब अपनों ने भी रंग बदल लिए हैं
झक सफेद तो कभी सिर्फ काले सपने आते हैं
अब इनसे दिल नहीं बहलता
अब ये मुझे डराते हैं

Wednesday, March 14, 2012

बचपन की बातें


बहुत साल पहले, बचपन में
तुमने एक टहनी दी थी मुझे
बहुत सहेजकर
ले जाना, लगा देना इसे गीली मिट्टी में
और भिगोते रहना तब तक
जब तक दो-चार पत्ते ना निकल आएं
मैं वो टहनी लाया, गीली मिट्टी में उसे लगाया
खूब भिगोता रहा
सुबह उठते ही, शाम को स्कूल से वापस आते ही
मगर उस टहनी से पत्ते नहीं फूटे
मुझे यकीन नहीं हुआ, तुम झूठ थोड़े कहोगी
मैंने ही गलती की होगी
पानी डालने में या निगरानी करने में
आखिर वो टहनी सूख गई
मुझे लगा जैसे तुम मुझसे रूठ गई
सोचा था अगले साल जब फिर आऊंगा
एक नई टहनी तुमसे मांगकर लाऊंगा
पूरे जतन से उसमें पत्ते उगाऊंगा
आखिर तुम्हें यूं रूठा हुआ कैसे छोड़ पाऊंगा
उस अगले साल का अब तक इंतजार है
तुम्हें मनाने को दिल अब भी बेकरार है

Saturday, March 10, 2012

'दीवार' तो चली गई



तमाम हसरतें और दर्द समेटे राहुल द्रविड़ ने टेस्ट क्रिकेट को भी अलविदा कह दिया। इसके साथ ही क्रिकेट के सभी संस्करणों से 'दीवार' चली गई। चेहरे पर एक खास तरह का भाव लिए द्रविड़ ने कभी खुद को जाहिर नहीं किया। ना मैदान पर ना मैदान के बाहर, लेकिन उनके दर्द को महसूस किया जा सकता है। भला कौन खिलाड़ी विश्वकप विजेता टीम का सदस्य नहीं बनना चाहेगा। लेकिन द्रविड़ को अपने ही घर में होने वाले विश्वकप के लिए टीम में शामिल नहीं किया गया। द्रविड़ एक ऐसी टीम के हिस्सा थे, जहां सचिन और सौरव गांगुली जैसे स्टार थे। उनकी तमाम उपलब्धियां इन स्टार खिलाडिय़ों की छाया में दबती रहीं। याद कीजिए 1996 का इंग्लैंड दौरा। लाड्र्स के मैदान पर खेला गया दूसरा टेस्ट द्रविड़ और गांगुली दोनों का ही डेब्यू मैच था। इसी मैच में शतक बनाकर गांगुली स्टार बन गए और द्रविड़ शानदार 95 रन बनाने के बावजूद सुर्खियों में जगह नहीं बना पाए। द्रविड़ जैसे बल्लेबाज के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जब कभी उन्होंने कोई बड़ा कारनामा किया, श्रेय बांटने के लिए कभी गांगुली खड़े थे, कभी सचिन तो कभी लक्ष्मण। ईडन गार्डन के मैदान पर कंगारुओं का विजय रथ रोकने में लक्ष्मण के साथ द्रविड़ का भी बड़ा रोल रहा। लेकिन आज जेहन में पहले लक्ष्मण का ही नाम आता है। इन तमाम बातों के बावजूद द्रविड़ ने एक नए नायकत्व की परिभाषा गढ़ी। नेपथ्य से नेतृत्व करते हुए वह हमेशा टीममैन रहे। उन्होंने कभी श्रेय लूटने की आतुरता नहीं दिखाई।


हमेशा साबित किया खुद को
असल में द्रविड़ की बल्लेबाजी देखना किसी क्लासिक मूवी को देखने जैसा है। यहां कोई चमत्कार नहीं होता, मगर जब शो खत्म होता है तो अहसास होता है कि वाह, क्या क्लास था! द्रविड़ ने भले ही बहुत ज्यादा छक्के ना लगाए हों, लेकिन तमाम गेंदबाजों के दंभ को उन्होंने अपनी ही स्टाइल में चकनाचूर किया है। द्रविड़ के क्रिकेट तकनीक के बारे में विशेषज्ञ टिप्पणियां कर चुके हैं। द्रविड़ के सामने हमेशा हालात मुश्किल रहे और उन्होंने हर बार खुद को साबित भी किया। तब भी जब उनके ऊपर टेस्ट बल्लेबाज का ठप्पा लग चुका था। उन्हें वनडे के काबिल नहीं माना जाता था। शर्त थी कि वह विकेटकीपिंग करना स्वीकार कर लें तो वनडे टीम में उनकी जगह बन जाएगी। कोई और खिलाड़ी होता तो शायद एटीट्यूड दिखाता, लेकिन द्रविड़ ने यह खुशी-खुशी स्वीकार किया। उन्होंने इसे बाकायदा साबित भी किया। दक्षिण अफ्रीका में खेले गए 2003 विश्वकप को याद करें। वह टूर्नामेंट के दूसरे सबसे सफल विकेटकीपर-बल्लेबाज थे। टीम के लिए द्रविड़ ने हमेशा खुद को आगे रखा। चाहे वह कठिन हालात में टीम को उबारने के लिए खेली गई उनकी पारियां हों या आगे रहकर जिम्मेदारी उठाने की बात। ना जाने कितने मौके आए जब द्रविड़ से ओपनिंग करने के लिए कहा गया और उन्होंने खुशी-खुशी की।

ग्लैमर की चकाचौंध से दूर
द्रविड़ की क्षमता असीम रही है। उन्होंने संभावनाओं से परे जाकर भारत के लिए कई असाधारण पारियां खेलीं। मगर जिन बातों ने मुझे उनका मुरीद बनाया वह है उनका एक असाधारण इंसान होना। आज हर तीसरे मैच में एक स्टार पैदा हो जाता है। आईपीएल की बदौलत पैसे कमाने में भी क्रिकेटर आगे हैं, लेकिन दूसरा द्रविड़ अब होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। याद नहीं आता कभी उन्होंने मैदान पर या मैदान के बाहर अनावश्यक जोश का इजहार किया हो। मैदान के बाहर भी कभी कोई विवाद नहीं हुआ। ग्लैमर की दुनिया में रहते भी उन्होंने इस दुनिया की तमाम फितरतों से उन्होंने खुद को बचाए रखा। जिस दुनिया में क्रिकेटर सफल होते ही नखरे दिखाने लगते हैं, द्रविड़ एक अलग ही मिसाल बनकर उभरे। दुनियाभर की महिलाओं में बेहद लोकप्रिय होने के बावजूद उनका नाम कभी किसी अभिनेत्री या मॉडल से नहीं जुड़ा और उन्होंने शादी भी की तो एक ऐसी लड़की से जो क्रिकेट की एबीसीडी भी नहीं जानती थी। अब भले ही द्रविड़ अंतर्राष्ट्रीय मैचों में नहीं दिखेंगे, मगर यह सच है कि वह तमाम क्रिकेटप्रेमियों के जेहन में हमेशा बसे रहेंगे एक असली हीरो की तरह।

न्यूज टुडे में प्रकाशित

Friday, March 2, 2012

तिग्‍मांशू का एक और कमाल : पान सिंह तोमर

सबसे पहले एक खास बात-
यह डाकुओं पर बनी पहली ऐसी फिल् होगी जिसमें डाकुओं ने घोड़े नहीं इस्तेमाल किये हैं।

यह समाज की विडंबना है कि यहां अच्‍छी चीजों और कामों को सही वक्‍त पर तारीफ नहीं मिलती। पान सिंह तोमर भी इसी विडंबना को व्‍यक्‍त करती है। जब तक पान सिंह सिपाही था, दौड़ता था, देश के लिए मेडल जुटाए, तब किसी ने नहीं पूछा। डाकू बनते ही उसकी सुर्खियां बनने लगती हैं। रेडियो पर नाम आने लगता है। पान सिंह अपना इंटरव्‍यू लेने आए पत्रकार से पूछता है, जब वह खिलाड़ी था तो उसका इंटरव्‍यू लेने क्‍यों नहीं आया।

कुछ लोग सिर्फ बेचने के लिए फिल्‍में बनाते हैं और कुछ लोग सिर्फ अच्‍छी फिल्‍में बनाते हैं। तिग्‍मांशु धूलिया दूसरी तरह के लोगों में से हैं। उनकी अपनी एक शैली है, एक अंदाज है और एक पैमाना भी। जब तक चीजें उस पर खरी नहीं उतरतीं सामने नहीं आतीं। डाकू, बदला, गांव, पुलिस, मुखबिर इन सबको मिलाकर कई फिल्‍में बन चुकी हैं, लेकिन तिग्‍मांशु धूलिया ने पान सिंह तोमर सबसे अलग रखा है।बीहड़ में तो बागी होते हैं, डकैत तो पार्लियामेंट में होते हैं. जैसे डॉयलॉग्‍स ने फिल्‍म को पहले ही चर्चित कर दिया है।

पान सिंह तोमर एक आम आदमी की कहानी है। जी हां, उसे खास तो व्‍यवस्‍था बना देती है, उसके हाथ में बंदूक थमाकर, उसे डाकू बनाकर। पान सिंह कभी उसूलों और कायदों के खिलाफ नहीं जाता। तब भी नहीं जब उसके कोच उसे 5000 मीटर दौड़ से स्‍टीपलचेज में शिफ्ट होने को कहते हैं, तब भी नहीं जब उसकी लाख इच्‍छा होते हुए भी उसे जंग के मैदान में नहीं भेजा जाता है, क्‍योंकि वह खेल से है। उसके दिल में कसक होती है। साथी ताने मारते हैं, मगर वह अडिग है। तब भी नहीं जब दुश्‍मनों के हाथों बुरी तरह पिटाई के बाद उसका बेटा जिंदगी से जूझ रहा होता है।

हर बार वह कानून और नियम से चलने की बात करता है। मगर जब थाने में उसकी सुनवाई नहीं होती। कानून उसका और उसकी उप‍लब्धियों का मजाक उड़ाता है और उसकी मां की जान चली जाती है तो वह मजबूर हो जाता है। इसी मजबूरी में वह बंदूक उठा लेता है, मगर उसूल नहीं छोड़ता। वह चाहता तो सरेंडर करके एक बेहतर जिंदगी गुजार सकता था, मगर उसके लिए रेस अधूरी छोड़ना मुमकिन नहीं। वह दम तोड़ देता है, मगर अपने कायदे पर कायम रहता है।

कहानी तीन परतों में है। पान सिंह के फौजी से एथलीट और फिर डाकू बनने की कहानी को तिग्‍मांशू धूलिया ने बेहद खूबसूरती से पिरोया है। बिना ज्‍यादा भटके और बिना ज्‍यादा भीड़ जुटाए वह कहानी की तीनों परतों को पर्याप्‍त विस्‍तार और गहराई देने में सफल हैं। यही तिग्‍मांशू की सबसे बड़ी सफलता है कि वह कथ्‍य और विषय से भटके नहीं हैं। बल्कि उसे शानदार तरीके से बुना है। कसावट और कहानी की रफ़्तार से बढि़या साम्‍य बिठाया है। चूंकि फिल्‍म चंबल पर आधारित है इसलिए डायलॉग में यहां का डायलेक्‍ट और टोन भी है। ग्‍वालियर और मुरैना में इस्‍तेमाल होने वाले शब्‍द मोड़ा (लड़का), मोड़ी (लड़की) और 'हौ' जिसे मध्‍यप्रदेश में स्‍वीकारोक्ति के तौर पर बोलते हैं, शामिल है।

पूरी फिल्‍म इरफान खान की है और इरफान ने अपने किरदार को निभाया भी खूब है। कुछ दिन पहले एक इंटरव्‍यू में तिग्‍मांशू ने कहा था कि उन्‍होंने इस फिल्‍म में इरफान को इसलिए लिया क्‍योंकि उनसे जो चाहिए निकलवाया जा सकता है, मांगा जा सकता है। इरफान ने इस बात को फिल्‍म में बखूबी साबित कर दिया है। अपने किरदार के सभी लेयर्स को वह बखूबी जी गए हैं। इरफान की खास बात यह है कि वह कभी किसी सिंबल, अतिरिक्‍त बनावट या हावभाव का सहारा नहीं लेते। उनका सबसे प्‍लस प्‍वॉइंट उनकी आंखें और संवाद अदायगी है। बस इन्‍हीं दोनों के सहारे वह अपने किरदार को पूरी तरह उभार लेते हैं ।

डायलॉग में आंचलिक शब्‍दों का इस्‍तेमाल करते हुए वह अटकते नहीं। जहां तक माही गिल की बात है तो रोल में बहुत लंबाई ना होने के बावजूद उनके लिए करने को बहुत कुछ था, लेकिन अफसोस वह उसमें एक हद तक ही सफल हुई हैं। उनका किरदार भी इरफान की संगत में ही बेहतर होता है। हालांकि एक बेबस पत्‍नी और मां के तौर पर वह खुद को पूरी तरह जाहिर नहीं कर पाई हैं। नॉन ग्‍लैमरस रोल में वह कहीं से प्रभावित नहीं कर पातीं। बाकी किरदारों ने भी अपने रोल के साथ न्‍याय किया है।

फिल्‍म के कुछ सीन बेहद लाजवाब हैं। जब पान सिंह आखिरी बार अपने परिवार से मिलने आता है। जब वह अपने बेटे से मिलने जाता है। एक और सीन है, जब सिपाही पान सिंह पहली बार घर आता है तो अपनी पत्नी को आलिंगन करते वक़्त उससे चेहरा दिखने को कहता है मगर जब वह चेहरा नहीं घुमाती तो पान सिंह आइना हाथ में लेकर उसका चेहरा देखने लगता हैपान सिंह की बेबाकी फिल्‍म में कई खूबसूरत सीन पैदा करती है।

डायलॉग्‍स भी अच्‍छे हैं और फिल्‍म में ह्यूमर का पुट भी अच्‍छा है। गानों की गुंजाइश थी नहीं और गाने का इस्‍तेमाल ना करके डायरेक्‍टर ने ठीक ही किया है, क्‍योंकि फिल्‍म की रवानी को प्रभावित करते। बैकग्राउंड साउंड अच्‍छा है। सिनेमैटोग्राफी भी बढि़या है। चंबल के बीहड़ो और गांवों की खूबसूरती एक अलग समां बांधती है।

(आखिरी पंच- फिल्म के आखिर में तिग्‍मांशू ने देश के कुछ खास एथलीटों का जिक्र किया है जो अभावों में जीवन बिताने को मजबूर हुए।)