दीपक की बातें

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Saturday, March 31, 2012

सपनों के रंग


सपनों में जीने की आदत पड़ चुकी है
इस कदर कि जागते हुए भी, आंखों में कोई सपना चलता है
कुछ अधूरी आरजुओं पर मन मचलता है
सिर्फ मेरी ही नहीं हर किसी की जिंदगी में
ये सिलसिला बचपन से है
तब छोटे थे, चीजों पर बस नहीं था
सपने देखे, बड़े हुए और बे-बस हो गए
मगर आदत नहीं छूटी सपने बुनने की
हां, फर्क तो आया है
तब और अब के सपनों में
बचपन के उन सपनों में रंग थे
अब सपनों से रंग गायब हैं
जिंदगी के कुछ रंग देखकर
सपनों ने रंग बदल लिए हैं
अब अपनों ने भी रंग बदल लिए हैं
झक सफेद तो कभी सिर्फ काले सपने आते हैं
अब इनसे दिल नहीं बहलता
अब ये मुझे डराते हैं

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