दीपक की बातें

Hindi Blogs Directory

Sunday, September 30, 2012

कमाल कर दिया कांजी भाई

Poster of OMG Oh My God!

ईश्वर के नाम पर ढोंग, धर्म के नाम पर पाखंड. हम सब देखते हैं. हम सब जानते हैं, लेकिन कभी आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं होती. चलिए फिल्म OMG Oh My God ये काम बखूबी करती है. अगर ईश्वर सृष्टि के कण-कण में मौजूद है तो किसी मंदिर, दरगाह या अन्य धार्मिक स्थल पर जाने की क्या ज़रूरत है? क्या इन्सान मात्र की सेवा प्रभु की सेवा नहीं है? धर्म के ठेकेदारों को क्यूँ बढ़ावा दें? कुछ ऐसे ही सवालों का कांजीभाई यानि परेश रावल दिलचस्प किन्तु ठोस अंदाज़ में जवाब देते हैं. धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ वह धर्मशास्त्रों को ही हथियार बनाते हैं. बेहद शानदार फिल्म. शुरू से अंत तक बंधी हुई. परेश रावल और मिथुन चक्रवर्ती ने शानदार अभिनय किया है. खासकर मिथुन का इस फिल्म में जवाब नहीं. उनपर अलग से लिखूंगा कभी. बाकी कलाकारों में अक्षय और अन्य औसत साबित हुए हैं. म्यूजिक और गीत भी अच्छे हैं. मस्ट वाच. 

Saturday, September 22, 2012

ज़िन्दगी

लम्हों की धुंध में धुआं-धुआं सी ज़िन्दगी
कुछ ख्वाबों की चाहतों में फ़ना ये ज़िन्दगी
कभी मिली यहाँ, तो कभी मिली वहां

हर मोड़ पे किसी से आशना है ज़िन्दगी
तुम कुछ हुए हमारे, कुछ हो गए और के
वैसे भी कहाँ मिलती है मुकम्मल ये जिंदगी.

Monday, September 17, 2012

लाजवाब बर्फी

 
बर्फी लाजवाब है, इतनी कि चाहे जितनी बार इसका लुत्फ उठाएं यह आपका जायका नहीं खराब करेगी। ये सिनेमाई शायरी है। लफ्ज-लफ्ज जज्बों, अहसासों और मोहब्बतों में डूबा हुआ। मोहब्बत की हजारों कहानियां सुनी होंगी आपने, लेकिन बर्फी मोहब्बत की पुख्ता गजल है। इस मोहब्बत को सलाम।

दार्जिलिंग के नजारे लुभाते हैं। इतना कि दिल चाहता है कि आंख बंद करें और वहीं पहुंच जाएं। बारिश की बूंदों को देख उनमें भीग
जाने का मन करता है। रात के कुछ सीन तो इतने बेहतरीन हैं कि पूछो मत। लगता है जैसे किसी जादूनगरी में पहुंच गए हैं।


और हां, सबसे खास हैं प्रियंका चोपड़ा। प्रियंका के हुस्न के कई रंग हम देख चुके हैं, लेकिन जितनी प्यारी और मासूम इस फिल्म में वह दिखी हैं, शायद फिर कभी ना दिखें। रणबीर का जवाब नहीं। बिना कुछ बोले वो बहुत कुछ कह गए हैं। हालांकि चौकाती हैं इलियाना डि क्रूज। सौम्य...नाजुक...खूबसूरत। अभिनय में भी उतनी ही लाजवाब, लगता ही नहीं कि पहली हिंदी फिल्म है।

बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म की आत्मा है और गाने सांस के सरीखे हैं। संवादों की कमी अखरती नहीं। प्रीतम का शायद यह सबसे बेहतरीन काम होगा अब तक का।

हां, संपादन में थोड़ी कमियां जरूर रह गई हैं, लेकिन जब बर्फी शुद्ध घी की बनी हो तो आकार मायने नहीं रखता।

शुक्रिया अनुराग! इस मिठास भरी लाजवाब बर्फी के लिए।

Monday, September 3, 2012

बच्चे की जान लोगे क्या



ल-सुबह सड़कों पर कदमताल करते हुए कुछ दिलचस्प नजारे देखने को मिलते हैं। छोटे-छोटे, चुन्नू-मुन्नू बच्चे आंखें मींचे अपनी स्कूल वैन का इंतजार कर रहे होते हैं। पीठ पर बस्ते का बोझ, हाथ में खुली कोई किताब और आंखों पर चढ़ा मोटा चश्मा। उन आंखों में कभी झांककर देखो तो एक डर, एक खौफ सा नजर आता है। साथ में खड़े मां-बाप, ममता की मूरत नहीं, किसी पहरेदार सरीखे नजर आते हैं।

ऐसे ही एक बेटे-बाप की जोड़ी को हर रोज देखता हूं। बेटा सड़क किनारे खड़ा, हाथ में किताब थामे, अपनी स्कूल वैन का इंतजार कर रहा होता है। पिताजी अपने बेटे से दूर और स्कू  टर के ज्यादा नजदीक नजर आते हैं। दोनों में संवाद नहीं। आगे चलकर यह संवादहीनता क्या असर डालेगी?

एक वाकया याद आ रहा है। एक मित्र अपने चार साल के बच्चे का स्कूल में एडमिशन कराने गए। प्रिंसिपल महोदया बच्चे की उम्र सुनते ही बोलीं- सालभर पहले ही ले आते। अब तक तो यह काफी कुछ सीख चुका होता। यह सुनकर मित्र ने उन्हें खरा-खरा जवाब दे दिया, मैडम हम अपने बच्चे का बचपन नहीं छीनना चाहते थे। एक अन्य मित्र शान बघार रहे थे। हमारा बेटा तो फलां स्कू  ल में पढ़ता है। इतनी तो सिर्फ उसकी फीस ही है। हर साल टॉप-थ्री में तो आता ही है। इतने गुणगान के बाद जब बच्चा सामने आया तो लगा कोई 'मरीज' है। हद से ज्यादा मोटा और आंखों पर वक्त से पहले चढ़ गया चश्मा। अपने में गुमसुम।

मैंने उसकी दिनचर्या जानी तो हैरान रह गया। सिर्फ 5 साल का बच्चा, सुबह 5:30 बजे स्कूल जाने के लिए तैयार हो जाता है। इससे पहले वह रात में 11 बजे तक जागकर टीवी भी देखता रहता है। एक बच्चे के लिए कम से कम 10 घंटे की नींद जरूरी होती है। क्या उसे जरूरत के मुताबिक पूरी नींद मिल रही है?

कहते हैं बच्चे देश का भविष्य होते हैं। ये कौन सा भविष्य तैयार हो रहा है भाई? क्या हम इंसानों के बजाए जीते-जागते रोबोट नहीं तैयार कर रहे हैं? तो जिम्मेदार कौन है? वह मां-बाप जो अपने लाडले से बेरहमी से पेश आ रहे हैं, या वो समाज जिसमें तरक्की के पैमाने बदल रहे हैं, या वो स्कूल जो अलसुबह से ही क्लास शुरू कर देते हैं, ताकि दोपहर में एक और शिफ्ट चलाकर वह मोटा मुनाफा कमा सकें?
निदा फाजली याद आ रहे हैं-

"बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो, चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे"


(Published in News Today)