दीपक की बातें

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Saturday, February 2, 2013

कुछ अलग, पर उलझी है विश्वरूपम

एक आतंकी है, जो गोरों को मिटा देना चाहता है, लेकिन अपने बेटे की मौत पर वह टूट जाता है। वह सवाल करता है कि अल्लाह, उसके साथ क्यों नहीं है, जबकि वह अल्लाह की ही लड़ाई लड़ रहा है? अफसोस, वह तब इस सवाल का जवाब नहीं ढूंढ पाता जब धर्म के नाम पर लोगों को मौत बांटने के लिए बरगलाता है। मेरे हिसाब से 'विश्वरूप या 'विश्वरूपम एक बेहद खूबसूरत फिल्म बनते-बनते रह गई। फिल्म में कुछ चीजों को इतनी खूबसूरती के साथ पोर्टे किया गया है कि यह दिल को छू जाती है। खास तौर पर प्रतीकात्मकता का बेहतरीन उपयोग है। जैसे, एके-47 पर एक मक्खी भिनभिना रही है, उसे नहीं पता कि वह मौत के किस खिलौने के साथ खेल रही है। ऐसे ही एक और सीन में जान देने से पहले जिस तरह सुसाइड बांबर बना लड़का झूले पर झूलता है। जब झूला उड़ान भरता है तो लगता है जैसे वह लड़का खुदा से मिलने जा रहा है। कुछ दृश्य बेहद क्रूर भी हैं, लेकिन वह फिल्म की जरूरत हैं। जब आप आतंकी क्रूरता की कुछ बेहद तल्ख सच्चाइयों से रूबरू हो रहे हों, तो इतना तो बर्दाश्त करना ही पड़ेगा।

कमल ही कमल
बड़े नामों के साथ एक बड़ी प्रॉब्लम होती है। फिल्म में उनपर इतना ज्यादा फोकस होता है कि बाकी चीजें आउट ऑफ फोकस हो ही जाती हैं। 'विश्वरूपम के साथ भी यही समस्या है। कमल हासन की अन्य कुछ फिल्मों की तरह यह भी पूरी तरह कमल पर ही केन्द्रित है। कमल का शानदार नृत्य, कमल की शानदार एक्टिंग, कमल की शानदार कलाबाजियां, कमल का रूप बदलना यानी बस कमल ही कमल। कमल को खिलाने के चक्कर में कहानी उलझ गई है और ऐसी उलझी है कि आखिर तक कोई सिरा हाथ नहीं आता। शुरुआत में कमल कथक नृत्य में भावनाओं का बेहतरीन का आरोह-अवरोह पेश करते हैं। बिरजू महाराज के नृत्य निर्देशन में वह शानदार हैं, मगर यह जादू बहुत सीमित समय तक ही रह पाता है। शुरुआती आधे घंटे तक फिल्म एक अलहदा अहसास दिलाती है।

कमाल के कमल

फिल्म की शुरुआत होती है एक शक्की पत्नी के अपने पति पर शक से। असल में पत्नी अपने पति को नॉर्मल मानती ही नहीं। माने भी कैसे, एक नर्तक होने के नाते, उसकी भाव भंगिमाएं स्त्रियोचित हैं। पत्नी का दूसरे पुरुष से चक्कर है। अब वह अपना दोष मिटाने के लिए पति में दोष ढूंढ रही है और उसके पीछे जासूस लगा रखा है। गलती से एक दिन यही जासूस हीरो का पीछा करते-करते एक गलत जगह पहुंच जाता है। बस यहीं से कहानी टर्न लेती है और जो खुलासे होते हैं, वह आपको चौंकाते चले जाते हैं। हालांकि चौंकाने का यह सिलसिला ज्यादा लंबा नहीं चल पाता। एक खास मोड़ तक आते-आते फिल्म अटकने लगती है। सीन रिपीट होने लगते हैं और यह फिल्म की पकड़ खराब करने के अलावा कुछ नहीं करते। इस दौरान अगर कुछ आपको बांधे रखता है तो वह है कमल हासन का उम्दा अभिनय। उनके किरदार की विभिन्न परतें हैं और उन्होंने हर परत पर जमकर कूंची चलाई है। इसके अलावा अभिनय में राहुल बोस हैं, जयदीप अहलावत और पूजा भी। इन्हें जब भी मौका मिलता है, ये पूरी शिद्दत के साथ अपने किरदार को उभारकर लाते हैं। खासकर राहुल बोस जो कि ओमर बने हैं, जिनका रोल एक आंख वाले आतंकी मुल्ला उमर से प्रेरित है।

किस बात का विरोध
जहां तक विवादों की बात है तो बता दूं कि फिल्म में एेसा कुछ नहीं, जिसे लेकर हंगामा खड़ा किया जाए। लगता है जिस तरह आतंकी बार-बार धर्मविशेष का नारा बुलंद करते हैं, उस पर यह आपत्ति आई हो। हालांकि फिल्म के परिप्रेक्ष्य में यह जरूरी लगता है। फिल्म देखकर लौटते वक्त मेरे दिमाग में एक दोस्त का फेसबुक स्टेटस बार-बार आ रहा था। यह भारत है, जहां हम बिना शाहरुख खान का आर्टिकल पढ़े, बिना आशीष नंदी को सुने और बिना कमल हासन की फिल्म देखे सिर्फ विरोध करने पर आमादा हो जाते हैं।
(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित )

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