दीपक की बातें

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Saturday, September 28, 2013

इस 'वॉर्निंग' से क्या संभलना!

2 स्टार
अक्सर थ्रिलर फिल्मों में दिखाया जाता है कि कुछ दोस्त साथ मस्ती करने निकलते हैं और वे मुसीबत में फंस जाते हैं। कभी टापू पर, कभी किसी भूतिया महल में तो कभी जंगल में। वॉर्निंग फिल्म में भी ऐसा ही कुछ होता है। सात दोस्त कई साल के बाद मिलते हैं। सभी मिलकर यॉट पर समुंदर की सैर करने की योजना बनाते हैं।

सात दोस्तों के अलावा याट पर एक छोटी सी बच्ची भी है, जिसका जन्मदिन वहां मनाया जाना है। सभी मस्ती कर रहे होते हैं कि अचानक एक हादसा होता है और सभी दोस्त एक के बाद अपनी जान गंवाते चले जाते हैं और आखिर में दो दोस्त बचते हैं।

फिल्म थ्रिलर है और थ्रीडी में है। इसके बावजूद यह रोमांच का अहसास नहीं जगा पाती। हालांकि निर्देशक ने पूरी कोशिश की है। फिल्म में ड्रामा और सस्पेंस की डोज डालने की पूरी कोशिश की है, लेकिन वे दर्शकों को चौंका नहीं पाते हैं। कुछ मामलों में तो पुराने फिल्मी फॉर्मूलों का ही इस्तेमाल कर लिया गया है।

दोस्तों की टोली, एक दोस्त का बेहद शरारती होना, एक और दोस्त का अतिमहत्वाकांक्षी होना और उसी की वजह से सबका मुसीबत में फंसना। यह चीजें हम पहले भी कई बार देख चुके हैं। हां, फिल्म में इस लिहाज से नयापन है कि पूरी फिल्म की शूटिंग समंदर में की गई है।

जहां तक अभिनय की बात है तो किसी के पास भी करने के लिए कुछ ज्यादा नहीं था। फिल्म पहले कुछ वक्त तक हल्के-फुल्के मूड में रहती है। इसके बाद फिर थ्रिलिंग पार्ट शुरू हो जाता है। ऐसे में सभी अभिनेताओं को लगभग प्रेडिक्टेबल अभिनय ही करना था। फिर भी सीमित मौकों के बीच सबने कुछ न कुछ करने की कोशिश की है।

समुंदर के अंदर शूट की गई फिल्म देखना चाहते हैं और समंदर में भीगी हसीनाएं देखना चाहते हैं तो आपके सामने यह फिल्म एक विकल्प हो सकती है। बाकी अगर बहुत ज्यादा उम्मीदें लेकर जा रहे हैं तो फिर आपकी उम्मीदों पर समंदर का पानी भी फिर सकता है।

Wednesday, September 25, 2013

इंसानी फितरतों और फरेबों का लंचबॉक्स

अपनी तमाम खूबियों से इतर लंचबॉक्स इंसानी फितरतों और फरेबों का लेखा-जोखा भी खूब अच्छे से पेश करती है। इसके सभी पात्रों की एक सी ही फितरत है। वह कुछ न कुछ छुपा रहा होता है। चाहे साजन फर्नांडिस हो, इला हो या फिर असलम शेख। हर किसी के अपने दर्द हैं, गम हैं और परेशानियां भी हैं, लेकिन साथ ही साथ उनका एक झूठ भी है। एक छल, एक फरेब की दुनिया रचते हैं ये सभी।

इला
शुरुआत इला से ही कर लेते हैं। पति को मनाने की कोशिश में जायकेदार खाना बनाती हैं। पेट के रास्ते दिल तक पहुंचने का जरिया तलाशती है। टिफिन खाली वापस आता है तो इला खुश होती है, लेकिन रात होते-होते पता चल जाता है कि गलती से टिफिन किसी और के पास पहुंच गया था। दूसरे दिन वह टिफिन वाले को रोकती नहीं। एक खत लिखकर डिब्बे में डाल देती है। फिर एक सिलसिला।
हकीकत में पति की उपेक्षा से नाखुश इला अफसाने में खुशी ढूंढने लगती है। पति से छुपा ले जाती है कि टिफिन किसी और के पास जा रहा है।

इला का पति
शायद इसकी वजह भी वाजिब है। आखिर उसका पति भी तो झूठा ही है। उसने ही इला से कहां बताया है कि उसका किसी और से अफेयर चल रहा है। वह तो इला है जो उसके कपड़ों से किसी पराई स्त्री की गंध पा लेती है। शायद इसी के बाद उसका मनोबल और बढ़ जाता है। साजन के साथ उसके खतों का सिलसिला भी। पति का फरेब, इला को फरेबी हो जाने का हौसला दे दे देता है।

असलम शेख
एक और पात्र असलम शेख, वह भी तो फरेबी ही है। नकली दस्तावेजों के आधार पर नौकरी पा लेता है। यहां भी जिसकी जगह लेनी है, उसका अटेंशन न मिलने पर खुद को अनाथ तक बता देता है। बाद में खुद ही अपनी अम्मी का जिक्र करके फंस भी जाता है। दावा करता है कि वह मेहनत करके अपने काम को पूरा सीखेगा, लेकिन गलतियों का अंबार खड़ा कर देता है।

साजन फर्नांडिस
और साजन फर्नांडिस, खुद से भागता है। दुनिया से भागता है। न किसी से मिलना न जुलना। तन्हाई का फरेब रच रखा है साजन ने। व्यक्तित्व के रूखेपन की खोल बनाकर उसमें खुद को छुपाना चाहता है। असलम को काम नहीं सिखाना चाहता। हालांकि उसकी पोल तब खुलती है, जब इला का खत उसके पास आता है। इसके बाद उसके व्यवहार में आते परिवर्तन साफ नजर आने लगते हैं। परतें खुलने लगती हैं। असलम के अनाथ होने की बात जानने के बाद वह उसके प्रति सहानुभूति से भर जाता है। उसे काम सिखाने लगता है। उसके साथ आने-जाने लगता है। अपने घर के पास खेलने वाले बच्चों से भी वह रुखाई से पेश आता है। असल में वह उनके पास जाना चाहता है, लेकिन वह खुद से खुल नहीं पाता। फरेब तो वह इला से भी करता है, जब उसे सहारे की जरूरत थी, दोस्त की जरूरत थी, उसे छोड़कर चला जाता है। वापस भी आता है तो तब, जब इस बात की गारंटी नहीं होती कि इला मिलेगी भी या नहीं।

Saturday, September 21, 2013

शाहिद फाड़ नहीं पाए पोस्टर!

दो स्टार
इन दिनों शाहिद कपूर अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। फिल्म कमीने के बाद उन्हें एक अदद हिट की तलाश है, लेकिन लगता है यह तलाश आसानी से पूरी होने वाली नहीं है। उनकी नवीनतम फिल्म फटा पोस्टर निकला हीरो तमाम अपेक्षाओं के बीच अपने लक्ष्य से पूरी तरह भटकती नजर आती है।


फिल्म की कहानी कुछ यूं है कि हीरो की मां उसे ईमानदार पुलिसवाला बनाना चाहती है, लेकिन हीरो तो फिल्मी हीरो बनना चाहता है। वह गुंडों को उड़-उड़कर मारता है, लेकिन न माथे पर पसीना आता है, न हेयरस्टाइल बिगड़ती है। हीरो की मां अस्पताल में भर्ती और हीरो जोक्स मार रहा है। इसके अलावा फिल्म में पांच मिनट के लिए सलमान खान भी हैं। राजकुमार संतोषी की ताजा पेशकश 'फटा पोस्टर निकला हीरो' की यह झलकियां हैं। फिल्म कॉमेडी के तौर पर प्रचारित की गई है, लेकिन आधे से ज्यादा फिल्म मारधाड़, रोमांस और इमोशन में ही खत्म हो जाती है। फिल्म में कॉमेडी पंचेस की जबर्दस्त कमी है।


पहले सवा घंटे में फिल्म हंसाने की थोड़ी कोशिश करती है। कुछ दृश्य अच्छे भी बने हैं, लेकिन हॉफ टाइम के बाद फिल्म को झेलना मुश्किल होने लगता है। तमाम आजमाए हुए पुराने फिल्मी फॉर्मूले फिल्म में आने लगते हैं, मसलन हीरो का बाप बुरा, मां बेटे पर बाप की छाया नहीं पडऩे देगी वगैरह-वगैरह। इसके अलावा सेकेंड हाफ में फिल्म हद से ज्यादा इमोशनल हो जाती है। निर्देशक इसे वापस कॉमेडी के ट्रैक पर लाने की भरपूर कोशिश करते हैं, लेकिन सफल नहीं हो पाते। कई दृश्यों में महसूस होता है कि निर्देशक ने फिल्म को अभिनेताओं के भरोसे छोड़ दिया है कि वह जैसे चाहें कर जाएं। वहीं अनायास बीच-बीच में गाने आकर फिल्म का रहा-सहा मजा भी किरकिरा कर जाते हैं।


अभिनय की बात करें तो अकेले शाहिद कपूर ने मामला संभालने की कोशिश की है। वह कई दृश्यों में फनी लगे हैं। इसके अलावा 'खाली-पीली' और 'धांटिंग नाच' गाने में भी अपने अंदाज से प्रभावित करते हैं। शाहिद की मां के रूप में पद्मिनी कोल्हापुरे ने अच्छा काम किया है। इलियाना डिक्रूज ने यह फिल्म क्यों साइन की समझ नहीं आता। वहीं अच्छे चरित्र अभिनेता जाकिर हुसैन फिल्म में पूरी तरह से जाया हो गए हैं। लगता है वह जबर्दस्ती हंसाने की कोशिश कर रहे हैं। बाकी अभिनेताओं में सौरभ शुक्ला, दर्शन जरीवाला, संजय मिश्रा और मुकेश तिवारी ने चरित्रों को अच्छे से निभाया है। फिल्म का गीत और संगीत भी दमदार नहीं है।

(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित)

Tuesday, September 17, 2013

मैं बस थिएटर में रमे रहना चाहती हूं: शिल्पी मारवाह

दीपक मिश्र
कुछ वक्त पहले आई फिल्म रांझणां में आपने उन्हें अभय देओल की बहन रश्मि के रूप में देखा। जी हां, यहां बात हो रही है शिल्पी मारवाह की। दिल्ली की गलियों में नुक्कड़ नाटकों के जरिए विभिन्न मुद्दों को उठा रही शिल्पी ने बॉलीवुड फिल्म में अभिनय की शुरुआत तो कर दी है, लेकिन अभी भी वह ग्लैमर की आंच से महफूज हैं। खुद को ​थिएटर की दुनिया में ही रमाए रखना चाहती हैं। अस्मिता थिएटर ग्रुप के साथ पिछले 7 साल से अपनी इस दुनिया में रमी शिल्पी सामाजिक जिम्मेदारियों को लेकर पूरी तरह सचेत हैं। इस इंटरव्यू से पिछली रात उन्होंने एक नाटक किया था। इस दौरान बोले गए जोरदार डायलॉग्स का असर उनकी आवाज में साफ पता चलता है। लंबी बातचीत के दौरान वह खांसती रहती हैं, गला बैठा हुआ है, लेकिन उनका लहजा जोश से भरा हुआ है। पूरी बातचीत की कुछ खास बातें आपके लिए...

रांझणा में रोल कैसे मिला?

यह बस संयोग से हुआ। असल में सोनम कपूर को रांझणां फिल्म के लिए नुक्कड़ नाटकों की वर्कशॉप करनी थी। इसके लिए रांझणां के निर्देशक आनंद एल राय उन्हें लेकर हमारे ग्रुप अस्मिता थिएटर ग्रुप में आए थे। इसी दौरान आनंद राय ने मुझे नोटिस किया। बाद में फिल्म के लेखक हिमांशु शर्मा ने मुझसे कहा कि मेरे लिए कुछ लिख रहे हैं। इस तरह मैं इस फिल्म में आ गई।

आपका क्या रिएक्शन था?
शुरू में मैं थोड़ा पसोपेश में थी, लेकिन अरविंद गौर सर (डायरेक्टर, अस्मिता थिएटर ग्रुप) ने कहा कि अच्छा मौका मिले तो छोडऩा नहीं चाहिए। बहुत अच्छा अनुभव रहा। एक नई शुरुआत हुई।

किसी तरह की नर्वसनेस थी?

हां, पहले दिन थोड़ा नर्वस थी। अभय देओल, सोनम कपूर, धनुष सभी सिनेमा के जाने-माने लोग हैं। हालांकि यह लोग काफी को-ऑपरेटिव रहे, इसलिए सब आसान हो गया। आनंद एल राय बहुत अच्छे निर्देशक हैं। उन्होंने कभी महसूस नहीं होने दिया कि मैं नई हूं।

ऐसा नहीं लगता कि बहन के रोल से शुरुआत करके गलत किया, लीडिंग रोल से शुरुआत होती तो अच्छा रहता?
बिल्कुल नहीं। मैंने तो इसकी भी अपेक्षा नहीं की थी। बिना किसी ऑडिशन के यह रोल मिल गया। आगे के बारे में ज्यादा सोचा नहीं है। अभी तो थिएटर में ही बिजी हूं।

थिएटर और सिनेमा में क्या अंतर महसूस करती हैं?
दोनों बहुत अलग हैं। सिनेमा की पहुंच ज्यादा लोगों तक है। हालांकि थिएटर में आप दर्शक से सीधे बात कर सकते हैं। आप जो करते हैं तुरंत उसका फीडबैक मिल जाता है।

आपका थिएटर की तरफ रुझान कैसे हुआ?
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते हुए स्टेज पर परफॉर्म करती रहती थी। इसी दौरान अरविंद सर कॉलेज में वर्कशॉप करने आए। वहां से मैं अस्मिता थिएटर ग्रुप के साथ जुड़ गई। करीब ७-८ साल हो गए।

क्या थिएटर करने के बाद फिल्मों की राह आसान हो जाती है?
काफी हद तक। आप थिएटर करते हुए बेसिक चीजें सीख जाते हो। बॉडी लैंग्वेज, आवाज का उतार-चढ़ाव वगैरह। हालांकि सिनेमा में चीजें अलग ढंग से होती हैं। वहां सेट पर कैमरा एंगल और दूसरी टेक्निकल चीजों पर ध्यान देना होता है।

कैसी होती है थिएटर आर्टिस्ट की दुनिया?
कुछ भी तय नहीं। सुबह उठने के बाद रात को सोने को मिलेगा भी नहीं, यह तय नहीं है। पैसा नहीं, खाने का वक्त मुकर्रर नहीं, दिन-रात सिर्फ काम-काम और काम। यह समझ लीजिए कि बहुत ज्यादा संघर्ष होता है। यहां कोई ग्लैमर नहीं है। एक थिएटर आर्टिस्ट को दिल, दिमाग और शरीर सबकुछ इंवॉल्व करना पड़ता है।

फिर क्या देता है थिएटर?एक जुनून, जज्बा, समर्पण। एक बेहतर इंसान बना देता है थिएटर। हमारे यहां लोग आते हैं थिएटर वर्कशॉप करने। विभिन्न पेशे से जुड़े हुए लोग, डॉक्टर, इंजीनियर। लोग जॉब करते हुए थिएटर करते हैं। वह जिंदगी को करीब से देखना चाहते हैं।

आपको फैमिली का सपोर्ट मिलता है?
मैं आठ साल की उम्र से ही इंडिपेंडेंट हूं। खुद को सपोर्ट करती आई हूं। फैमिली को चिंता रहती है, लेकिन उन्हें मेरे ऊपर भरोसा है।

आगे का क्या प्लान है?
अभी तो सिर्फ थिएटर है। हर पल, हर वक्त बस थिएटर। साथ में पढ़ाई चलती रहती है। सोशल इश्यूज को लेकर जानकारी जुटाते रहते हैं, ताकि उनपर स्ट्रीट प्ले के जरिए आवाज उठाई जा सके।
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शिल्पी की पसंद—नापसंद

आदर्श- अरविंद गौर
सबसे मुश्किल काम- घटनाओं को देखकर अनदेखा नहीं कर पाती।

पसंदीदा फिल्में- कॉमेडी
खाने में पसंद- मां के हाथ का बना खाना

सुनना- जो भी अच्छा लगे

(न्यूज़ टुडे में प्रकाशित)

Saturday, September 14, 2013

बेशर्मी की हद के पार 'ग्रैंड मस्ती'

डेढ़ स्टार
क्या वाकई फिल्मों पर बाजारवाद हावी हो गया है? क्या सौ करोड़ रुपए कमाने की लालसा इस कदर हावी हो गई है कि हमें कुछ भी गंदगी परोस दी जाएगी? ऐसे कई सवाल फिल्म ग्रैंड मस्ती को देखते हुए जेहन में लगातार आते रहते हैं। साथ ही याद आती रहती हैं ऋषिकेश मुखर्जी के दौर की शुद्धतम कॉमेडी वाली फिल्में, जिन्हें देखकर हम हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते हैं।



कॉमेडी के नाम पर द्विअर्थी संवाद, अश्लीलता और नंगेपन की तमाम हदें पार हम भौंडेपन और घटियापन की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। एडल्ट कॉमेडी के नाम पर ग्रैंड मस्ती जो कॉमेडी परोसती है वह पूरी तरह से अपच है। 'जो समाज में हो रहा है वही तो फिल्मों में दिखाया जा रहा है' जैसी बातें अब बेशर्मी छुपाने का बहाना ही लगती हैं। क्या सुपर कूल हैं हम जैसी फिल्मों के सिलसिले को आगे बढ़ाती ग्रैंड मस्ती एक 'खास' दर्शक वर्ग के लिए है। कहीं न कहीं यह उस दर्शक वर्ग को संतुष्ट भी करती है।


भला कौन सा स्कूल होगा, जहां लड़कियां हमेशा बिकनी में रहती हैं? मगर इस फिल्म में ऐसा है। सिर्फ इतना ही नहीं, इस फिल्म के प्रिंसिपल की पत्नी, बहन और बेटी के नाम को बेहद गंदे तरीके उच्चारित किया जाता है। रिश्तों-नातों तक को नहीं बख्शा गया है। नहीं इस कॉलेज में एबीसीडी का ऐसा मतलब बतलाया जाता है जिसे सुनकर शर्म आती है और निर्देशक इसे अपनी काबिलियत समझता है। पुरुष और पात्रों के प्राइवेट हिस्सों को क्लोज-अप में इतने भद्दे तरीके से शूट किया गया है कि जिसका विवरण भी नहीं दिया जा सकता।


फिल्म के पहले दृश्य से ही अश्लीलता का जो खेल शुरू होता है वह पूरी फिल्म में लगातार चलता रहता है। मानो फिल्म के लेखक और निर्देशक ने मान लिया है कि डबल मीनिंग के नाम पर कुछ भी दिखाया या कहा जा सकता है। कई जगहों पर तो ऐसे दृश्य हैं कि लगता है कोई सी-ग्रेड फिल्म देख रहे हैं। पूरी फिल्म में ऐसा दिखाया गया है कि मानो औरतें सिर्फ सेक्स करने के लिए बनी हैं, या फिर कम से कम कपड़े पहनकर घूमने के लिए। लगता है कि फिल्म के निर्देशक जैसे भूल गए हैं कि ह्यूमर और चीपनेस में कोई अंतर होता है। हीरोइनों के हिस्से में अपने शरीर का जितना हो सके प्रदर्शन करना आया है तो पुरुषों के हिस्से अश्लीलता से भरे डायलॉग्स। न कहानी है, न गाने, फिल्म टोटल बकवास है।

दीपक मिश्र


Monday, September 9, 2013

नए प्रतीक गढ़ती शुद्ध देसी रोमांस

शुद्ध देसी रोमांस निश्चित तौर नए फ्लेवर की फिल्म है। रघु, गायत्री और तारा की कहानी हमारे ही आसपास से प्रेरित है। इसके साथ ही फिल्म में जिस तरह से कुछ शानदार प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है वह भी काफी अच्छा है।

खासतौर पर बाथरूम का। असल में इस फिल्म में बाथरूम को एक कैरेक्टर के तौर पर पेश किया गया है। रघु जब पहली बार शादी से भागता है तो बाथरूम का बहाना बनाकर भागता है। इसके बाद कई सीन में बाथरूम भागने का सहारा बना है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ बाथरूम को ऐसे ही दिखा दिया गया है। फिल्म देखते हुए गौर कीजिए, बाथरूम पर कुछ न कुछ लिखा है। इसके जरिए निर्देशक ने एक नई प्रतीकात्मकता का इजाद किया है। इसके अलावा टेंशन के वक्त में जब रघु गायत्री की नब्ज टटोलता है, वह भी प्रतीकात्मकता का बेहतर उदाहरण है। खासतौर पर रोमांस की प्रतीकात्मकता का

आज बहुत से युवा हैं, जो जिंदगी को एंज्वॉय करना चाहते हैं, लेकिन शर्तों में बंधकर नहीं। गर्लफ्रेंड चाहिए, उसके साथ सेक्स संबंध भी चाहिए, लेकिन जहां शादी करने की बात आती है, जिम्मेदारी उठाने की बात आती है, वह कट लेता है।

बड़े शहरों में ही नहीं, छोटे शहरों में भी ऐसे किस्से खूब सुनने को मिल जाएंगे। जहां लड़के एक नहीं, दो—दो, तीन—तीन गर्लु्फ्रेंड रखते हैं, लेकिन शादी किसी ने नहीं करना चाहते। हो सकता है कि बहुत से लोगों को यह स्टोरी हजम न हो, लेकिन समाज की एक सच्चाई ​तो दिखाती ही है शुद्ध देसी रोमांस।