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Monday, November 11, 2013

बासी कढ़ी कब तक उबालोगे रामू अंकल!

सत्या-2, डेढ़ स्टार
1998 में रामगोपाल वर्मा की फिल्म आई थी सत्या। इसने बॉलीवुड में गैंगस्टर आधारित फिल्मों के लिए एक नया ट्रेंड सेट किया। अब 2013 में रामू सत्या-2 लेकर आए हैं। पहली फिल्म की तुलना में यह फिल्म किसी त्रासदी की तरह है।
पिछली फिल्म की तरह इस बार भी मुंबई में सत्या (पुनीत सिंह रत्न) नाम का एक शख्स आता है। वह कौन है, कहां से आया है, उसका अतीत क्या है कोई नहीं जानता। वह अपने एक दोस्त नारा (अमृतायन) के यहां रुकता है और इसी बीच उसकी मुलाकात एक बड़े आदमी से होती है, जो उसे काम देता है। यहीं से सत्या अपने शातिर दिमाग का इस्तेमाल कर मुंबई पर राज करने के मिशन में लग जाता है। अपने मकसद में कामयाब होने के लिए वह खून बहाने से भी नहीं कतराता। क्या सत्या अपने मकसद में कामयाब होता है, यही फिल्म में बताया गया है।

लचर पटकथा
फिल्म की कहानी उलझी हुई और पटकथा बेहद लचर है। असल में इसमें तमाम आजमाए हुए फिल्मी फॉर्मूले हैं। फिल्म का हीरो अपनी कंपनी खड़ी कर मुंबई समेत पूरे राज्य पर राज करना चाहता है, लेकिन वह दिल का बेहद अच्छा है। गरीबों का मददगार है। हीरो सिस्टम के खिलाफ है। वह सरकारी अधिकारी को अच्छा-खास लेक्चर भी देता है। अमीरों को लूटता है और गरीबों में बांटता है, वगैरह। लॉजिक के लेवल पर भी ढेरों गलतियां है, कुछेक पर गौर फरमाएं हीरो अपने शहर से किसी को मारकर भागा था, लेकिन वहां की पुलिस उसे एक बार भी तलाश करने की कोशिश नहीं करती। साथ मुंबई पुलिस को इतना लाचार दिखाया गया है कि हंसी आती है। बिजनेसमैन से लेकर, पत्रकार, मुख्यमंत्री इतनी आसानी से मार दिए जाते हैं मानो कोई बाग से आम तोड़कर ले जा रहा हो।

अनजाने चेहरे
फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है कि इसमें कोई भी जाना-पहचाना चेहरा नहीं है। एकमात्र चेहरा जिसे दर्शक थोड़ा पहचान सकते हैं, वह हैं महेश ठाकुर। फिल्म की दो हीरोइनें- अनाइका और आराधना गुप्ता, महज शो-पीस के तौर पर हैं। फिल्म में गाने अच्छे भी नहीं हैं और अनावश्यक ढंग से आकर फिल्म की रफ्तार रोकते हैं। अगर कुछ अच्छा है तो वह है सिनेमैटोग्राफी, वीएफएक्स का अच्छा इस्तेमाल दृश्यों को खूबसूरत बनाता है। मगर दर्शक सिर्फ सिनेमैटोग्राफी देखने तो जाएंगे नहीं। बहरहाल, मुख्य भूमिका में पुनीत सिंह रत्न ने जरूर बढि़या कोशिश की है। क्राइम फिल्मों में डायलॉग काफी मायने रखते हैं, लेकिन यहां डायलॉग भी दमदार नहीं हैं।

फाइनल पंच
कुल मिलाकर सत्या-२ वह कढ़ी है, जिसे रामगोपाल वर्मा समेत जाने कितने लोग उबाल चुके हैं। फिल्म का क्राइम बैकग्राउंड और ढेरों गालियां इसे फैमिली क्लास से दूर करती हैं। सत्या-2


के कमजोर होने का पूरा फायदा क्रिश-३ को मिलेगा, जो कि फैमिली एंटरटेनमेंट की कसौटी पर खरी उतरती है।

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