दीपक की बातें

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Thursday, March 27, 2014

डर कम, सेक्स ज्यादा: रागिनी एमएमएस-2

तीन स्टार
फिल्म रागिनी एमएमएस का भूत ऐसा है जो आपको डराता भी है तो अंग प्रदर्शन करते हुए। जी हां, इस फिल्म में आपको डर की डोज तो मिलेगी ही, साथ ही मिलेगा सनी लियोनी की दिल को लुभाती अदाएं भी। फिल्म की कहानी कुछ यूं है कि फिल्म निर्देशक रॉक्स (प्रवीण डबास) रागिनी एमएमएस स्कैंडल पर फिल्म बनाना चाहता है।

स्कैंडल कुछ ये था कि उदय और रागिनी एक सुनसान बंगलो पर मौज-मस्ती करने जाते हैं। वहां भूतों का साया होता है। रागिनी की मां ऐसा न करने के लिए मन करती है, लेकिन इसके बावजूद रॉक्स शूटिंग करने जाता है। रागिनी का किरदार निभाने के लिए सनी (सनी लियोनी) को चुनता है। फिल्म की शूटिंग के दौरान ही सेट पर अजीब-अजीब घटनाएं होने लगती हैं।


जैसा कि फिल्म के बारे में पहले से ही प्रचारित किया गया है, यह हॉरर और सेक्स का मिश्रण है। फिल्म में कई डराने वाले दृश्य हैं और दर्शकों को चौंकाते हैं। वहीं समानांतर ढंग से रोमांटिक और अंतरंग दृश्य भी हैं। निर्देशक ने डराने की बढिय़ा कोशिश की है। फिल्म के कलाकारों का काम बढिय़ा है।

सनी लियोनी ने जमकर एक्सपोज किया है। वहीं प्रवीण डबास, संध्या मृदुल और सत्या के रोल में साहिल प्रेम ने भी बढिय़ा काम किया है। फिल्म में एक अहम भूमिका में दिव्या दत्ता भी नजर आई हैं। फिल्म का म्यूजिक प्लस प्वॉइंट है और 'बेबी डॉल' और 'वोदका' गाने पहले से ही पॉपुलर हैं।


फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले में नएपन का बिल्कुल अभाव है। अगर आप हॉरर फिल्मों के शौकीन हैं तो इस तरह की कहानी और घटनाओं वाली बहुत सी फिल्में आपने देख रखी होंगी। बहुत सारे सीन और सीक्वेंसेस आपको देखे हुए लगेंगे। जैसे सनी लियोनी के हवा में उडऩे का सीन। या फिर दिव्या दत्ता का किरदार, वगैरह।
हां, फिल्म में बोल्ड दृश्यों की भरमार है।

सनी लियोनी से एक्टिंग की बहुत उम्मीद तो नहीं थी। मगर ऐसा लगता है निर्देशक ने सनी लियोनी की नाइटीज और ब्रा की डिजाइन और वैरिएशन चुनने में ज्यादा ध्यान दिया है।


अगर आप सनी लियोनी के फैन हैं और बोल्ड व हॉरर फिल्में पसंद हैं तो एक बार देख सकते हैं।

Tuesday, March 11, 2014

‘गुलाब गैंग’ वहां से शुरु होती है जहां से जूही का किरदार शुरु होता है


(शुक्रिया दिनेश सर, इसे अपने ब्लॉग पर जगह देने के लिए! दिनेश सर के ब्लॉग पर यहां से जाएं...
http://indianbioscope.com/cinema/gulab-gang-juhi-chawla/20140310/)

फिल्म ‘गुलाब गैंग’ कैसी है और कैसी नहीं इस पर तो कई फिल्म विशेषज्ञ चर्चा कर चुके हैं। मेरा मकसद फिल्म की विवेचना करना कतई नहीं। यहां तो मैं गुलाबी रंग से हटकर फिल्म के एक अलग रंग का जिक्र करना चाहता हूं।

Juhi Chawla in Gulab Gangजी हां, यह रंग था जुही चावला के नायाब अभिनय का। एक ऐसी अभिनेत्री जिसका साल-दर-साल ख्याल आते ही तस्वीर बना करती थी एक चुलबुली बाला की। मस्ती में मगन और बिंदास हंसती हुई। किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि खुशमिजाजी और मस्ती के आलम में सराबोर यह अदाकारा जब परदे पर एक करप्ट पॉलिटिशियन का किरदार आत्मसात करेगी तो कहर बरपा देगी। विडंबना देखिए कि खुद जूही ने भी यह रोल अस्वीकार कर दिया था। और अब जबकि परदे पर उनका अभिनय दिख रहा है तो बस एक ही सवाल जेहन में आता है, कहां छुपा रखा था जूही ने अभिनय का यह रंग!

मेरे जेहन में जूही के निभाए कई किरदार आ—जा रहे थे। ‘डर’, ‘इश्क’, ‘मिस्टर और मिसेज खिलाड़ी’ से लेकर ‘सलाम—ए—इश्क’ और ‘सन आफ सरदार’ तक। मगर जितने शानदार ढंग से उन्होंने एक करप्ट पॉलिटिशियन का रोल निभाया है, वह मुझे फिल्म ‘शूल’ के सैयाजी शिंदे का निभाए रोल के समकक्ष लगता है। वही क्रूरता, वही कपट, वही शातिरपन! चेहरे पर आती—जाती भावनाओं का वैसा ही ज्वार—भाटा!
फिल्म का वह दृश्य काबिल—ए—गौर है, जब स्थानीय नेता और अपने होने वाले रिश्तेदार के घर से जूही रिश्ता टूटने के बाद निकलती हैं। मन में गुस्सा है, चेहरे पर आक्रोश है, लेकिन तभी सामने भीड़ नजर आती है। एक मंझे हुए नेता की तरह वह अपने मन की भावनाएं दबाकर बड़ी आत्मीयता से मुस्कुराकर जनता का अभिवादन करती हैं। जनता माधुरी दीक्षित की जयजयकार करती है, लेकिन वह नाराजगी जाहिर नहीं करतीं, बल्कि हालात का मिजाज समझते हुए माधुरी से मेल बढ़ाने की कोशिश करती हैं। इसी तरह जब बागी नेता उनके घर के सामने शोर मचाता है तो उसे सबक सिखाने के लिए जो ‘रास्ता’ अख्तियार करती हैं, वह भी उनके किरदार के कपट की एक बानगी है।

अपने पति की मौत से मिलने वाले इंश्योरेंस क्लेम की चर्चा करते हुए उनके चेहरे के भावों को गौर कीजिएगा, या फिर चुनाव में जीत से पूर्व जब वह अपने पति की तस्वीर के सामने खड़ी होती हैं! हर फ्रेम में, हर सीन में, जहां भी जूही आई हैं, बस छा गई हैं। यहां तक कि माधुरी के साथ वाले फ्रेम में भी वह आगे नजर आती हैं।

यह फिल्म देखने के बाद मैं कह सकता हूं कि ‘गुलाब गैंग’ वहां से शुरू नहीं होती, जहां से यह शुरू होती है। बल्कि यह वहां से शुरू होती है जहां से जूही का किरदार शुरू होता है। उनके चेहरे पर भावनाओं का उतार—चढ़ाव, कपट का प्रदर्शन सबकुछ हैरान कर देता है। उनकी अभिनय क्षमता पर संदेह करना तो गुस्ताखी होगी, लेकिन जूही के इस रूप पर तो उनका कट्टर आलोचक भी फिदा हो जाएगा!

Saturday, March 8, 2014

माधुरी और जुही का 'गुलाब गैंग'

तीन स्टार
तमाम विवादों, अड़ंगों और पेचीदगियों के बावजूद आखिर सौमिक सेन की फिल्म गुलाब गैंग सिनेमा हॉल तक पहुंच ही गई। फिल्म की कहानी है एक महिला रज्जो (माधुरी दीक्षित) की। वह लोगों के हितों के लिए लड़ती है। आसपास के क्षेत्रों में उसकी खासी धमक है। एक बड़ी नेता सुमित्रा बागरेचा (जुही चावला) की पार्टी का नेता उसके पास सपोर्ट मांगने आता है और पा भी जाता है। मगर बदलते घटनाक्रम के बीच हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि रज्जो और जुही चावला में ठन जाती है। इस बीच सुमित्रा समझौता करने के लिए रज्जो को बुलाती है और उसे अपनी पार्टी से चुनाव लडऩे का लालच देती है। मगर रज्जो को यह बातें नहीं सुहातीं और वह सुमित्रा के सामने चुनाव लडऩे का फैसला करती है। यहां से शुरू होती है, महत्वाकांक्षा, राजनीतिक साजिश और दो औरतों के अहं की लड़ाई।

फिल्म की सबसे खास बात है माधुरी दीक्षित और जुही चावला। जिस भी फ्रेम में यह दोनों साथ या अलग-अलग आती हैं, पूरी तरह छा जाती हैं। खासतौर पर जुही चावला। एक चालाक, कपटी और भ्रष्ट नेता के रोल में उन्होंने जान फूंक दी है। उनकी बॉडी लैंग्वेज, चेहरे की भाव-भंगिमा और डायलॉग डिलीवरी देखकर हो सकता है आपको एकबार यकीन ही न आए कि इसी जुही को आपने कुछ बेहद चुलबुली और मजाकिया भूमिकाओं में देखा है। माधुरी दीक्षित ने भी अपने किरदार में जान फूंक दी है। खासकर एक्शन दृश्यों में उनकी मेहनत देखते ही बनती है। नृत्य में तो खैर वो पारंगत हैं ही।
फिल्म के अन्य किरदारों में माधुरी के साथ तनिष्ठा चटर्जी, दिव्या जगदाले, प्रियंका बोस आदि ने भी अच्छा काम किया है।

फिल्म की कहानी और निर्देशन में खामियां हैं। शुरुआत में नारी सशक्तिकरण के मुद्दे को उठाते हुए दिखाया जाता है, लेकिन आखिरकार यह एक राजनीतिक गैंगवार तक सिमटकर रह जाती है। कहानी के स्तर पर भी काफी बिखराव है। रिसर्च के स्तर पर भी खामियां हैं। फिल्म में लोकेशन और गाडि़यां मध्य प्रदेश की दिखाई गई हैं, लेकिन एक जुही चावला के किरदार को कुछ कागजात पर दस्तखत करते दिखाया गया है, जिनपर उत्तर प्रदेश और लखनऊ लिखा है। इसी तरह जुही चावला को एक बहुत बड़ा पॉलिटिशियन बताया गया है, उनके सामने पुलिस के अधिकारी तक झुकते हैं और जो नहीं झुकते उन्हें सस्पेंड कर दिया जाता है। मगर जब वह चुनाव लड़ती हैं तो वोट बैलट पेपर से डाले जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में बैलट से वोट तो पंचायत के चुनावों में ही डाले जाते हैं, तो क्या इतनी बड़ी नेता पंचायत चुनाव लडऩे आ गई? यह समझ से परे है। फिल्म के आखिर में जुही चावला से मशीनगन से गोली चलवा डाली है, जो बहुत बेतुका लगता है। इसके अलावा ढेर सारे गाने भी मजा किरकिरा करते हैं।

फिल्म के डायलॉग्स भी काफी अच्छे हैं। सिनेमैटोग्राफी अच्छी है। एक्शन दृश्यों को देखने में मजा आता है। इसके अलावा कोरियोग्राफी भी बढि़या है। गीत-संगीत फिल्म का साथ देते हैं।

गुजरे जमाने की दो शानदार अदाकाराओं को एकसाथ परदे पर देखने का यह बेहतरीन मौका है। खासकर उनके अभिनय की नई ऊंचाईयों के साथ। वैसे ओवरऑल देखें तो फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। वही भ्रष्टाचार, अराजकता, अफसरों का जनता की बातें न सुनना आदि-आदि।
फिल्म में इंदौर शहर के अंकित शर्मा ने भी काम किया है। उन्होंने सरजू नाम का किरदार निभाया है जो अपनी पत्नी को प्रताडि़त करता है। वह फिल्म में माधुरी दीक्षित के हाथों में थप्पड़ भी खाते हैं। करीब 15 मिनट के रोल में अंकित ने अच्छा काम किया है।