दीपक की बातें

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Saturday, February 21, 2015

बदले की कहानी नए अंदाज में, बदलापुर

तीन स्टार

लंबे अरसे के बाद श्रीराम राघवन ने अपना क्लास दिखाया है। वो क्लास जो एजेंट विनोद में सैफ अली खान को हीरो बनाने के चक्कर में नहीं दिखा पाए थे। हालांकि राघवन को इसके लिए इस बात का भी शुक्रगुजार होना चाहिए कि फिल्म में धवन फैक्टर आड़े नहीं आया।

ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि जब यह फिल्म शुरू हुई थी, तब वरुण धवन नए थे। हालांकि संयोग से ही सही, यही बात वरुण के लिए प्लस प्वॉइंट है, क्योंकि उनकी रोमकॉम इमेज से अलग यह उन्हें एक सॉलिड अंदाज में पेश करती है। इसके साथ ही हमें शुक्रगुजार होना चाहिए कि नवाजुद्दीन सिद्दिकी नाम का एक एक्टर है, जो किसी भी रोल को इस बेहतरी से निभा जाते हैं कि दिल को छू जाते हैं।

कहानी की बात
एक दिन दो लुटेरे लायक (नवाजुद्दीन) और हरमन (विनय पाठक) बैंक लूटकर भाग रहे होते हैं, उसी दौरान उनके हाथों और एक युवती मिशी (यामी गौतम) और उसके बेटे की मौत हो जाती है। मिशी, राघव/रघु (वरुण धवन) की पत्नी है। जेल में लायक पुलिस को उल्टी सीधी कहानियां सुनाता है और आखिर में उसे २० साल की जेल हो जाती है। उधर राघव बदले की आग में तड़पता रहता है। उसे यह मौका मिलता है एक संयोग से, जो उसके पास आता है सोशल वर्कर शोभा (दिव्या दत्ता) के रूप में। मगर अंत में लायक उसे एक राज बताता है, जो राघव को हिलाकर रख देता है।
फिल्म की शुरुआत लाजवाब है। खासकर पहले 15 मिनट तो बिल्कुल बांध देते हैं। हालांकि कुछ—कुछ जगहों पर फिल्म में झोल हैं और कहानी की गति टूटती है। इसके अलावा अंत भी थोड़ा खिंच गया है। बाकी भूमिकाओं में हुमा कुरैशी (झिमली), विनय पाठक (हरमन) और (राधिका आप्टे) कंचन ने भी अच्छा काम किया है।

फिल्म को ए रेटिंग मिली है तो जाहिर है कि यह फैमिली क्लास की नहीं है। फिल्म में मारपीट और अंतरंग सीन भी हैं। इसके बावजूद नवाजुद्दीन सिद्दीकी के लाजवाब अभिनय और वरुण के बदले हुए अंदाज के लिए इस फिल्म को एक बार देखा जा सकता है।

नवाज़ का बदला अंदाज़

बदलापुर देखने के दौरान नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी के लिए तालियां बजती देख दिल खुश हो गया। पिछली सीट पर बैठे दर्शक उनकी फिल्मों के नाम लेकर उनके रोल का रेफरेंस दे रहे थे। इस फ़िल्म में भी नवाज़ ने लायक के रोल का अंदाज़ देखने ही नहीं, याद रखने लायक बना दिया है। हर पैंतरा, हर अंदाज़ बिलकुल शातिर। अगर मैंने कभी दोबारा ये फ़िल्म देखी तो निश्चित तौर पर वजह नवाज़ होंगे।

कहना गलत नहीं होगा कि नवाज़ हमारे वक़्त के सक्षम अभिनेताओं में शुमार हो चुके हैं। वो मनोज बाजपेई, इरफान, ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह की जमात में शामिल होते जा रहे हैं। जितनी गहराई के साथ वो अपनी भूमिका निभाते हैं वो लाजवाब है। चाहे गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का फैज़ल हो या कहानी का वो सख्तमिज़ाज़ इंस्पेक्टर खान। तलाश का तैमूर लंगड़ा हो या फिर किक का सनकी शिव गजरा।

उनकी ये रेंज और विविधता जाहिर है कि उनके संघर्ष से उपजी है। 15 साल कोई कम नहीं होते। इस दौरान शूल में वेटर, सरफ़रोश में अपराधी, मनोरमा सिक्स फ़ीट अंडर में मंत्री का गुंडा और ऐसे ही जाने कितने रोल जो परदे पर बस चंद मिनट ही दिखे। उन गुमनामी के दिनों से आज तालियों के बीच के सफ़र में जो तपिश मिली वो शायद कोई महसूस न कर सके। मगर नवाज़ुद्दीन की ज़िंदगी इस बात के लिए प्रेरित करती है की संघर्ष कभी बेकार नहीं जाता। बस टिके रहने का जज़्बा होना चाहिए। सलाम नवाज़ भाई।